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आत्म से ब्रह्म तक: परम सत्य का अनुभव

आत्म से ब्रह्म

by | May 16, 2025 | Sanatan Soul

प्रस्तावना

इस संसार में हर व्यक्ति किसी न किसी खोज में लगा हुआ है। कोई धन के पीछे भाग रहा है, कोई पद की इच्छा रखता है, कोई प्रेम चाहता है, और कोई शांति। लेकिन इन सभी खोजों के पीछे एक गहरा सत्य छिपा है – हम वास्तव में स्वयं को खोज रहे हैं।

“हम जो भी खोज रहे हैं, वह हमारे अंदर ही है।” यह सत्य यद्यपि सरल है, पर इसे अनुभव करना उतना ही गहन है जितना कि सागर की गहराई। आइए इस यात्रा को समझें – आत्मज्ञान से ब्रह्मज्ञान तक की यात्रा को, जो वास्तव में सत्य की ओर ले जाने वाली सरल पर गहन यात्रा है।

आत्मज्ञान: ‘मैं कौन हूँ?’ की खोज

मनुष्य जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है – ‘मैं कौन हूँ?’ इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने पर ही सारी खोज का अंत होता है। हम अपने जीवन में स्वयं को विभिन्न रूपों में पहचानते हैं – शरीर, मन, बुद्धि, या फिर विभिन्न भूमिकाओं के रूप में। हम कहते हैं – मैं एक अध्यापक हूँ, मैं एक माता-पिता हूँ, मैं एक व्यापारी हूँ, मैं एक विद्यार्थी हूँ। परंतु क्या यह हमारी वास्तविक पहचान है?

“आप वह नहीं हैं जो दिखता है, आप वह हैं जो सब कुछ देखता है।” इस वाक्य का अर्थ बहुत गहरा है। हम जो दिखते हैं – शरीर, मन, भूमिकाएँ – वह हमारा स्वरूप नहीं है। हमारा वास्तविक स्वरूप है – द्रष्टा, साक्षी, जो इन सबको देखता है।

द्रष्टा भाव: साक्षित्व का अनुभव

आत्मज्ञान का पहला और अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है – द्रष्टा बनना। यह द्रष्टा भाव क्या है और इसे कैसे अनुभव किया जा सकता है? इसे समझने के लिए एक सरल उदाहरण:

जब आप किसी भीड़-भरे बाज़ार में होते हैं, वहां आप अनेक लोगों को देखते हैं, उनकी गतिविधियों को निहारते हैं। आप उन्हें देखते हैं, पर उनकी गतिविधियों से प्रभावित नहीं होते। आप एक साक्षी मात्र होते हैं। ठीक इसी प्रकार, अपने विचारों और भावनाओं के प्रति भी साक्षीभाव रखें – उन्हें देखें, पर उनके साथ न बहें।

जब कोई समस्या आती है, तो अधिकांश लोग उस समस्या से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। वे सोचते हैं, “मैं परेशान हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं असफल हूँ।” लेकिन साक्षीभाव रखने वाला व्यक्ति जानता है, “मैं इस परिस्थिति को देख रहा हूँ, लेकिन मैं यह परिस्थिति नहीं हूँ।” यह छोटा-सा अभ्यास जीवन में आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है।

“व्यवहार काल में भी आप आत्मा में ही रहते हो।” यह वाक्य बताता है कि चाहे हम कुछ भी कर रहे हों – बात कर रहे हों, खाना बना रहे हों, ऑफिस में काम कर रहे हों – हम अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) में ही रहते हैं। बस हमें इसका बोध नहीं होता। जैसे सोने का आभूषण चाहे किसी भी आकार का हो, उसका सार सोना ही रहता है, वैसे ही हमारा सार आत्मा ही है, चाहे हम किसी भी भूमिका में हों।

आत्मज्ञान के लिए दैनिक अभ्यास

आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए कुछ सरल लेकिन प्रभावशाली अभ्यास:

  1. प्रातः काल का मौन: हर सुबह 15-20 मिनट शांत बैठकर अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करें। विचारों को आने दें और जाने दें, उनसे जुड़ें नहीं। केवल एक द्रष्टा बनकर देखें।
  2. द्रष्टा भाव का अभ्यास: दिनभर में जब भी संभव हो, अपने विचारों और भावनाओं को देखने का प्रयास करें। उनसे तादात्म्य स्थापित न करें।
  3. आत्म-पूछताछ: रोज़ाना स्वयं से पूछें – “मैं कौन हूँ?” और उत्तर के लिए मन के भीतर गहरे उतरें।
  4. वर्तमान में रहना: अधिकांश समय हम या तो भूतकाल की यादों में या भविष्य की चिंताओं में खोए रहते हैं। वर्तमान क्षण में रहने से हमें अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव होता है।

आत्मज्ञान एक क्षणिक बोध नहीं, अपितु निरंतर अभ्यास से प्राप्त होने वाला अनुभव है। जैसे-जैसे यह अनुभव गहरा होता जाता है, वैसे-वैसे हम माया के स्वरूप को समझने लगते हैं।

विस्तार से जानिए: आत्मज्ञान: मैं क्या हूँ?

माया का ज्ञान: भ्रम से परे

आत्मज्ञान के पश्चात् हम माया के रहस्य को समझने की ओर बढ़ते हैं। माया क्या है? सरल शब्दों में, माया वह आवरण है जो हमें अपने वास्तविक स्वरूप को देखने से रोकता है, वह भ्रम है जो हमें हमारी सच्ची प्रकृति से दूर रखता है।

माया के दो रूप

माया के दो मुख्य रूप हैं – आवरण और विक्षेप।

  1. आवरण (Concealing): जैसे बादल सूरज को ढक लेते हैं, वैसे ही माया हमारे वास्तविक स्वरूप को ढक देती है। हम अपने शुद्ध, चेतन, आनंदमय स्वरूप को भूल जाते हैं और अपने आप को सीमित, अपूर्ण और दुखी मानने लगते हैं।
  2. विक्षेप (Projecting): माया न केवल सत्य को छिपाती है, बल्कि झूठ को भी प्रक्षेपित करती है। जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा दिखाई देती है, वैसे ही माया हमें झूठी धारणाएँ और अवास्तविक वस्तुएँ दिखाती है। हम भौतिक वस्तुओं, संबंधों और उपलब्धियों में स्थायी सुख की तलाश करते हैं, जबकि ये सब अस्थायी हैं।

माया का प्रभाव

माया का प्रभाव हमारे जीवन के हर पहलू पर देखा जा सकता है। हम धन, पद, प्रतिष्ठा, संबंध – इन सबमें सुख और संतुष्टि खोजते हैं। हम सोचते हैं कि “अगर मुझे यह मिल जाए, तो मैं खुश हो जाऊंगा।” लेकिन क्या कभी ऐसा होता है? एक इच्छा पूरी होती है, तो दूसरी जन्म ले लेती है। यह अंतहीन चक्र ही माया का खेल है।

हम अपनी पहचान शरीर, मन, संबंध, या सामाजिक स्थिति से जोड़ लेते हैं। हम सोचते हैं, “मैं यह शरीर हूँ, मैं यह मन हूँ, मैं इस परिवार का सदस्य हूँ, मैं इस पद पर हूँ।” लेकिन ये सब अस्थायी हैं, बदलते रहते हैं। हमारा वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे, अविनाशी और अपरिवर्तनशील है।

माया से परे जाने की कला

“माया की पहचान ही माया से मुक्ति का पहला कदम है।” जब हम माया को पहचान लेते हैं, तो उसका प्रभाव कम होने लगता है। माया से परे जाने के लिए कुछ अभ्यास:

  1. आत्म-चिंतन: हर इच्छा, हर निर्णय, हर भावना को गहराई से देखें। स्वयं से पूछें:
    • क्या इस इच्छा का कोई अंत है?
    • क्या इसे पाने के बाद मुझे स्थायी संतुष्टि मिलेगी?
    • क्या यह मेरे वास्तविक स्वरूप से जुड़ी है?
  2. अनासक्ति का अभ्यास: वस्तुओं और व्यक्तियों से अनासक्त रहने का अभ्यास करें। उनका उपयोग करें, उनसे प्रेम करें, लेकिन उनपर निर्भर न हों, उनसे बंधे न हों।
  3. वस्तुओं की अनित्यता का बोध: हर वस्तु, हर संबंध, हर परिस्थिति अनित्य है। इस सत्य को हर पल स्मरण रखें।
  4. विवेक का विकास: सत्य और असत्य, नित्य और अनित्य में भेद करने की क्षमता विकसित करें।

माया को पहचानने और उससे परे जाने का अभ्यास हमें धीरे-धीरे ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाता है।

ब्रह्मज्ञान: परम सत्य का अनुभव

ब्रह्मज्ञान वह परम बोध है जिसमें व्यक्ति अपने को ब्रह्म (परम सत्य) से एक अनुभव करता है। यह अनुभव “बेफिक्री” के बाद आता है।

बेफिक्री: परम स्वतंत्रता

बेफिक्री का अर्थ है – चिंता से मुक्त, इच्छाओं से स्वतंत्र, परिपूर्णता का अनुभव। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ व्यक्ति को किसी भी बाहरी वस्तु या व्यक्ति की आवश्यकता नहीं रहती।

“इच्छा वाली रखो ही मत। जब उस स्टेज में आ जाओ कि मेरी अब कोई इच्छा नहीं है… उसी क्षण से आपकी हर इच्छा पूरी होगी।” यह कथन विरोधाभासी लगता है, लेकिन इसमें गहरा सत्य छिपा है। जब हम पूर्णतया संतुष्ट होते हैं, जब हमें किसी भी वस्तु की कमी महसूस नहीं होती, तब हम सच्चे अर्थों में स्वतंत्र होते हैं। और इस स्वतंत्रता में, सब कुछ स्वाभाविक रूप से उपलब्ध होता है।

एकत्व का अनुभव

ब्रह्मज्ञान का सार है – एकत्व का अनुभव। इस अनुभव में द्वैत (दोहरापन) मिट जाता है। जैसे समुद्र में उठने वाली लहरें अलग-अलग दिखती हैं लेकिन वास्तव में समुद्र का ही हिस्सा हैं, वैसे ही हम सभी एक ही ब्रह्म के विभिन्न रूप हैं।

“आपको कभी भी लगता है आप दो हो?” हमारा उत्तर होता है, “नहीं, हमेशा एक लगता है।” यही वननेस (एकत्व) है। हम स्वभाव से ही एकत्व में रहते हैं, बस हमें इसका बोध नहीं होता।

ब्रह्मज्ञान में सभी विभाजन मिट जाते हैं – ज्ञाता और ज्ञेय, द्रष्टा और दृश्य, मैं और तुम। केवल एक अद्वितीय सत्ता का अनुभव होता है, जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है।

ब्रह्मज्ञान के लक्षण

ब्रह्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति के कुछ लक्षण:

  1. अभयत्व: उसे किसी भी वस्तु या परिस्थिति से भय नहीं होता।
  2. समदृष्टि: वह सबमें एक ही आत्मा को देखता है।
  3. प्रेम और करुणा: उसका हृदय सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा से भरा होता है।
  4. शांति और आनंद: उसके जीवन में निरंतर शांति और आनंद का प्रवाह होता है।
  5. परिपूर्णता: उसे किसी भी वस्तु की कमी महसूस नहीं होती।

सत्य को जीवन में उतारना

इस ज्ञान को केवल बौद्धिक समझ तक सीमित न रखें। इसे जीवन का अभिन्न अंग बनाएँ:

दैनिक अभ्यास

  1. प्रातः काल का ध्यान: हर सुबह 20-30 मिनट शांत बैठकर अपने वास्तविक स्वरूप के साथ जुड़ें। बस स्थिर रहें और स्वयं को साक्षी भाव से अनुभव करें।
  2. दिन के दौरान सचेतनता: दिनभर में बार-बार स्वयं को याद दिलाएँ – “मैं यह परिस्थिति नहीं हूँ, मैं इसका द्रष्टा हूँ।” हर कार्य को पूर्ण सचेतनता के साथ करें।
  3. संसार को नए नज़रिए से देखें: हर व्यक्ति, हर वस्तु में उस एक परम सत्य को देखने का प्रयास करें। संसार को माया के रूप में नहीं, बल्कि ब्रह्म की अभिव्यक्ति के रूप में देखें।
  4. सत्संग और स्वाध्याय: नियमित रूप से सत्संग में भाग लें और आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें।
  5. रात्रि का आत्म-मंथन: रात को सोने से पहले दिनभर की घटनाओं को एक फिल्म की तरह देखें, बिना किसी निर्णय या प्रतिक्रिया के। स्वयं से पूछें – “क्या मैंने आज अपने वास्तविक स्वरूप के अनुरूप जीवन जिया?”

परिवर्तन के संकेत

जैसे-जैसे आप इस पथ पर आगे बढ़ेंगे, आप अपने जीवन में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन देखेंगे:

  1. चिंताएँ कम होंगी: भविष्य की चिंता और भूतकाल के पश्चाताप से मुक्ति मिलेगी।
  2. संबंध सुधरेंगे: आपके संबंध अधिक गहरे, अर्थपूर्ण और निःस्वार्थ होंगे।
  3. कार्यक्षमता बढ़ेगी: आप कम प्रयास में अधिक कार्य कर पाएंगे।
  4. स्वास्थ्य सुधरेगा: मानसिक शांति के साथ शारीरिक स्वास्थ्य भी सुधरेगा।
  5. आनंद बढ़ेगा: जीवन में निरंतर आनंद का अनुभव होगा, जो बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होगा।

उपसंहार

“आत्मा के संकल्प मात्र से सृष्टि-प्रलय हो जाता है। लेकिन स्वयं पे अगर थोड़ा भी तनिक भी संदेह है तो यह कभी नहीं होगा।” यह कथन हमें आत्मविश्वास और दृढ़ता के महत्व को याद दिलाता है। हमें अपने वास्तविक स्वरूप पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए।

सत्य की खोज वास्तव में सरल है। यह किसी दूर के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं, बल्कि अपने मूल स्वरूप की पहचान है। यह एक ऐसा सत्य है जो हमारे भीतर ही विद्यमान है – “आप वही हैं जो आप हमेशा से थे – शुद्ध चेतना।”

आपका जीवन एक अद्भुत यात्रा है – आत्मज्ञान से माया के ज्ञान तक, और फिर ब्रह्मज्ञान की ओर। इस यात्रा में बेफिक्र रहें, श्रद्धा रखें, और अपने वास्तविक स्वरूप में निरंतर स्थिति का अभ्यास करें।

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Ajay Shukla

Throughout my life, I've worked across multiple industries, and truthfully, defining myself in one line has never been easy. However, a few roles resonate deeply with me: digital marketing strategist, former journalist (Dainik Jagran) and journalism teacher, and a lifelong student of existence. Each experience has shaped who I am, merging practical insight with a quest for deeper understanding.

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