प्रश्न – सृष्टि का आरंभ क्या है?
उत्तर: जब कुछ भी नहीं, स्वयं को अनुभव करना चाहता है। यही सृष्टि का आरंभ है।
कुछ भी नहीं = शिव
सृष्टि के आरंभ का गूढ़ रहस्य
जब हम सृष्टि के आरंभ की बात करते हैं, तो हमारा मन तुरंत उस क्षण को खोजने लगता है जब पहली बार कुछ शुरू हुआ। पर वास्तविकता यह है कि सृष्टि का आरंभ किसी घटना में नहीं, बल्कि एक चेतना की अभिलाषा में छुपा है। यह अभिलाषा है स्वयं को जानने की, स्वयं को अनुभव करने की।
शिव: परम शून्यता का स्वरूप
जब हम कहते हैं “कुछ भी नहीं”, तो इसका अर्थ रिक्तता नहीं है। यह वह अवस्था है जहां कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, कोई विशेषता नहीं। उपनिषदों में इसे “नेति नेति” – यह नहीं, यह नहीं – के रूप में दर्शाया गया है। यही शिव का मूल स्वरूप है।
रमण महर्षि ने जब “मैं कौन हूं?” की खोज की बात कही, तो वे इसी नेति नेति की प्रक्रिया का वर्णन कर रहे थे। जब हम यह कहते जाते हैं कि “मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं यह मन नहीं हूं, मैं यह बुद्धि नहीं हूं”, तो अंत में जो बचता है, वही शुद्ध चेतना है – वही शिव है।
अनुभव की प्रथम हलचल
जब यह शुद्ध चेतना, यह परम शून्यता, स्वयं को अनुभव करना चाहती है, तो एक अद्भुत घटना होती है। जैसे शांत झील में पहली लहर उठती है, वैसे ही निर्गुण ब्रह्म में पहला स्पंदन होता है। यही सृष्टि का आरंभ है।
कश्मीर शैवागम में इसे “स्पंद” कहा गया है। यह स्पंदन कोई बाहरी क्रिया नहीं है, बल्कि शिव की आंतरिक शक्ति का प्रकटीकरण है। जैसे सूर्य अपनी किरणों के बिना सूर्य नहीं हो सकता, वैसे ही शिव अपनी शक्ति के बिना शिव नहीं हो सकता।
चक्र का प्रथम चरण: शून्य से सब कुछ तक
अहंकार की उत्पत्ति
जब स्वयं को अनुभव करने की इच्छा प्रकट होती है, तो सबसे पहले “मैं” का भाव जन्म लेता है। यही अहंकार है – चित्त का वह भाग जो कहता है “मैं हूं”। पर यह अहंकार वास्तव में क्या है? यह शिव की ही शक्ति है जो अपने आप को अलग समझने लगती है।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं – “मैं सभी भूतों में स्थित हूं और सभी भूत मुझमें स्थित हैं।” अर्थात्, यह पूरा संसार शिव की ही अनुभूति है। जिसे हम व्यक्तिगत “मैं” समझते हैं, वह वास्तव में शिव का ही एक स्वप्न है।
यहां हम देख सकते हैं कि कैसे यह यात्रा “शिव: वो जो नहीं है” से शुरू होकर सब कुछ बन जाती है।
संसार का विस्तार
एक बार अहंकार की उत्पत्ति के बाद, फिर “तू”, “यह”, “वह” का जन्म होता है। द्वैत की दुनिया शुरू हो जाती है। शिव अब अनेक रूपों में अनुभव करता है कि वह कैसा है। कभी वह सुख है, कभी दुख। कभी प्रेम है, कभी भय। कभी ज्ञान है, कभी अज्ञान।
यह सारा खेल शिव का ही है। जैसे कोई अभिनेता अलग-अलग किरदार निभाता है, वैसे ही शिव अनेक भूमिकाओं में स्वयं को अनुभव करता है। पर अभिनेता को पता होता है कि वह केवल अभिनय कर रहा है। शिव का खेल यह है कि वह इतनी गंभीरता से अभिनय करता है कि खुद ही भूल जाता है कि यह केवल नाटक है।
चक्र का द्वितीय चरण: पुनः शून्य की ओर
जागृति की शुरुआत
आध्यात्मिक यात्रा वास्तव में इसी भूलने की अवस्था से जागने की प्रक्रिया है। जब कोई साधक अपने वास्तविक स्वरूप की खोज में निकलता है, तो वह उसी पथ पर चलता है जिसे पहले शिव ने बनाया था – लेकिन उल्टी दिशा में।
जैसे शिव ने नेति नेति की अवस्था से सब कुछ बनाया था, वैसे ही साधक सब कुछ छोड़कर नेति नेति की अवस्था तक पहुंचता है। यह यात्रा तब तक चलती है जब तक कि वह उसी बिंदु पर नहीं पहुंच जाता जहां से सब कुछ शुरू हुआ था।
अहंकार की मृत्यु
इस यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण क्षण है अहंकार की मृत्यु। जो “मैं” भाव सबसे पहले पैदा हुआ था, वही सबसे अंत में मरता है। यह मृत्यु कोई नाश नहीं है, बल्कि एक पुनर्मिलन है। जैसे लहर समुद्र में मिल जाती है तो लहर का नाम-रूप मिट जाता है, पर पानी का नाश नहीं होता।
जब अहंकार की पूर्ण मृत्यु हो जाती है, तब “शिव का अंतिम रहस्य” प्रकट होता है।
कबीर दास जी ने इसे सुंदर तरीके से कहा है: “जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं। सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं।”
चक्र की पूर्णता: शिव का पुनरागमन
वापसी की महिमा
जब अहंकार पूरी तरह मिट जाता है, तब जो वापस आता है वह फिर से वही शिव है – लेकिन अब एक फर्क के साथ। अब वह जानता है कि वह शिव है। पहले वह अनजाने में शिव था, अब वह सचेत रूप से शिव है।
यहां एक गहरा रहस्य है: शिव होने के बाद भी कुछ नहीं बदलता। वही शरीर है, वही मन है, वही संसार है। फर्क केवल दृष्टि का है। अब हर चीज को पूरी चैतन्यता से अनुभव किया जाता है।
चैतन्य अनुभूति का स्वरूप
जब व्यक्ति फिर से शिव हो जाता है, तो वह हर घटना, हर वस्तु, हर व्यक्ति को उसी स्वरूप में देखता है जिस स्वरूप में वे हैं – बिना किसी मानसिक व्याख्या के, बिना किसी निर्णय के। यही है वर्तमान में स्थित होना, यही है एक क्षण में रुक जाना।
जैसे पहले दर्पण सोचता था कि जो प्रतिबिंब उसमें दिखते हैं वे उसका हिस्सा हैं, अब वह जानता है कि वे केवल प्रतिबिंब हैं। दर्पण अछूता रहता है, चाहे उसमें सुंदर चेहरा दिखे या कुरूप।
संसार में, पर संसार से पार
इस अवस्था में पहुंचा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार से अलग होता है। वह काम करता है पर कर्ता नहीं होता। बोलता है पर वक्ता नहीं होता। देखता है पर द्रष्टा नहीं होता। यह गीता का “निष्काम कर्म” है, यह कबीर का “साधो, ये मुर्दन का गांव” है।
समीकरण की स्पष्टता: शिव = कुछ भी नहीं
इस पूरी यात्रा के अंत में एक बात स्पष्ट हो जाती है: शिव = कुछ भी नहीं। यह कोई दर्शन नहीं है, यह गणित है। जब सब कुछ घटाते जाते हैं, तो अंत में जो बचता है, वह कुछ भी नहीं है। पर यह “कुछ भी नहीं” वह नहीं है जिसे हम खालीपन समझते हैं। यह वह “कुछ भी नहीं” है जिससे सब कुछ आता है।
यह वैसा ही है जैसे गणित में शून्य। शून्य कुछ भी नहीं है, पर सभी संख्याएं उसी से निकलती हैं और उसी में मिल जाती हैं। शिव इस सृष्टि का वह शून्य है।
मानसिकता और चैतन्यता का अंतर
अहंकार = मन अथवा अशुद्ध चित्त
यह वह तत्व है जो कहता है “मैं हूं” और फिर इस “मैं” के लिए पूरा संसार बना लेता है। यह मन अपनी व्याख्याओं, अपने निर्णयों, अपनी मान्यताओं से हर चीज को रंग देता है।
जब यह मन मिट जाता है, तो जो बचती है वह शुद्ध चैतन्यता है। यह चैतन्यता किसी चीज को बदलती नहीं, केवल उसे वैसा ही देखती है जैसा वह है। यहां कोई कर्ता नहीं, कोई भोक्ता नहीं, केवल शुद्ध साक्षी चेतना है।
निष्कर्ष: सदैव का वर्तमान
यह पूरी यात्रा – शून्य से सब कुछ तक और फिर सब कुछ से शून्य तक – वास्तव में कोई यात्रा नहीं है। यह एक वृत्त है जो सदैव पूर्ण रहता है। शिव कभी अलग नहीं हुआ था, केवल भूल गया था। और जागृति का अर्थ है इस भूलने की समाप्ति।
जब यह समझ आ जाती है, तो हंसी आती है। कितने जन्म लगाए स्वयं को खोजने में, जबकि स्वयं कभी गया ही नहीं था। कितनी साधना की स्वयं को पाने के लिए, जबकि स्वयं सदैव मौजूद था।
सृष्टि का आरंभ है स्वयं को जानने की चाह। और सृष्टि की पूर्णता है स्वयं को जान लेना।
यह चक्र सदैव चलता रहता है। न इसकी शुरुआत है, न अंत। केवल शिव है – जो कुछ भी नहीं है, फिर भी सब कुछ है।
🕉️ शिवोऽहम् – मैं शिव हूं
क्योंकि जब कुछ भी नहीं बचता, तो जो बचता है वही शिव है। और वह हम ही हैं।
यह लेख उस गहरी अनुभूति पर आधारित है जो प्राकृतिक वातावरण में स्वयं प्रकट हुई। जब सत्य का साक्षात्कार होता है, तो वह बिना किसी प्रयास के अपने आप प्रकट हो जाता है – ठीक वैसे ही जैसे सृष्टि का आरंभ हुआ था।
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