by Ajay Shukla | Apr 26, 2025 | Sanatan Soul
हमारे भीतर कई प्रकार की वृत्तियाँ होती हैं जो हमारे व्यक्तित्व और जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती हैं। इन वृत्तियों में से एक महत्वपूर्ण है – जाति वृत्ति। जाति वृत्ति का अर्थ है सामाजिक पहचान, सफलता, प्रतिष्ठा और सामाजिक संबंधों से जुड़ी प्रवृत्तियाँ।
ज्ञान मार्ग पर चलते हुए, हम इन वृत्तियों को ‘नियंत्रित’ नहीं करते, बल्कि ‘अनुभवकर्ता’ के रूप में इनका ‘अवलोकन’ करते हैं। अनुभवकर्ता को हम कई नामों से जानते हैं – दृष्टा, साक्षी, चैतन्य, आत्मन। आइए जाति वृत्ति के विभिन्न पहलुओं को साक्षी भाव से समझें।
1. व्यवहार (Behavior) में जाति वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
साहसी, आत्मविश्वासी और मेहनती व्यवहार का अवलोकन
रवि की कहानी: रवि एक 35 वर्षीय उद्यमी हैं। वह अपने छोटे व्यवसाय को बड़ी कंपनी में बदलने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। एक दिन, एक मित्र ने पूछा, “क्या आप कभी थकते नहीं हैं?”
रवि ने एक क्षण रुककर अपने व्यवहार पर चिंतन किया। “मैं देख रहा हूँ कि मेरे भीतर एक ऐसी वृत्ति है जो मुझे निरंतर मेहनत करने, साहसी कदम उठाने और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है,” उन्होंने महसूस किया। “यह मेरी जाति वृत्ति है – समाज में सफल और प्रतिष्ठित होने की इच्छा।”
रवि इस वृत्ति के साक्षी बने, इससे तादात्म्य किए बिना।
स्वतंत्र और नेतृत्वकारी प्रवृत्ति का साक्षित्व
अनीता की कहानी: अनीता एक शिक्षिका थीं। लेकिन उन्हें हमेशा महसूस होता था कि वह किसी और के अधीन काम करने के बजाय अपना स्कूल खोलना चाहती हैं। एक दिन, वह इस इच्छा पर गहराई से विचार करने लगीं।
“मैं देख रही हूँ कि मेरे भीतर एक स्वतंत्र और नेतृत्वकारी प्रवृत्ति है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “मैं कर्मचारी नहीं, नियोक्ता बनना चाहती हूँ। यह मेरी जाति वृत्ति है – दूसरों का मार्गदर्शन करने की, प्रभाव रखने की इच्छा।”
अनीता इस प्रवृत्ति की साक्षी बनीं, बिना इसे अच्छा या बुरा कहे।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे व्यवहार के पैटर्न को देखता है, उन्हें स्वयं मान लिए बिना। जैसे रात को तारे देखने वाला व्यक्ति तारों से अलग होता है, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे व्यवहार से अलग होता है।
चाय विक्रेता की कहानी:
पंकज अपने छोटे से चाय के ठेले पर दिन भर काम करते थे। वह शहर के व्यस्त चौराहे पर स्थित थे जहां कई बड़े व्यापारी और अधिकारी आते-जाते थे। एक दिन, एक नियमित ग्राहक ने उनसे पूछा, “पंकज, तुम भी एक रेस्तरां क्यों नहीं खोलते? तुम्हारी चाय तो बहुत अच्छी है।”
पंकज ने मुस्कुराते हुए कहा, “साहब, मैंने देखा है कि मेरे अंदर भी कभी-कभी बड़ा व्यापारी बनने की इच्छा जागती है। जब आप जैसे बड़े लोग आते हैं, तो मन करता है कि मैं भी एक दिन ऐसा बनूं। यह मेरी जाति वृत्ति है – समाज में ऊँचा स्थान पाने की, सम्मानित होने की चाह।”
“लेकिन मैं इस इच्छा का सिर्फ साक्षी बनता हूँ। मैं देखता हूँ कि यह आती है और फिर चली जाती है। मैं इससे अपनी पहचान नहीं बनाता। मैं न तो इसे दबाता हूँ, न ही इसमें खो जाता हूँ। मैं सिर्फ देखता हूँ।”
ग्राहक ने पूछा, “और ऐसा करने से क्या होता है?”
पंकज ने कहा, “इससे मैं शांति पाता हूँ। मुझे अपने छोटे से व्यापार में भी संतोष मिलता है, और कभी-कभी जब अवसर मिलता है, तो मैं आगे बढ़ने के लिए कदम भी उठाता हूँ – पर हड़बड़ाहट और चिंता के बिना।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- व्यवहार अवलोकन: एक दिन चुनें और उस दिन अपने हर महत्वपूर्ण निर्णय से पहले स्वयं से पूछें: “क्या यह निर्णय मेरी सामाजिक छवि या प्रतिष्ठा से प्रेरित है?”
- प्रेरणा की जाँच: जब भी आप किसी बड़े लक्ष्य के लिए काम कर रहे हों, रुकें और अपनी प्रेरणा का अवलोकन करें। क्या यह वास्तव में आपकी इच्छा है या समाज की अपेक्षाओं का परिणाम?
- नेतृत्व अभ्यास: जब आप नेतृत्व की स्थिति में हों, अपने भीतर उभरने वाले भावों का अवलोकन करें। आप शक्ति, नियंत्रण या महत्व के भाव को कैसे अनुभव करते हैं?
2. वाणी (Speech) में जाति वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
स्पष्टवादी और आत्मविश्वासी वाणी का अवलोकन
सुधीर की कहानी: सुधीर एक 40 वर्षीय मार्केटिंग प्रोफेशनल हैं। बैठकों में, वह अपनी बात बेबाकी से रखते हैं, चाहे सामने वरिष्ठ अधिकारी ही क्यों न हों। एक दिन, एक सहकर्मी ने उनसे पूछा, “आप इतने स्पष्ट और बिना डरे कैसे बोल लेते हैं?”
सुधीर ने अपनी वाणी के पैटर्न पर विचार किया। “मैं देख रहा हूँ कि मेरी वाणी में एक निर्भीकता और स्पष्टता है,” उन्होंने महसूस किया। “यह मेरी जाति वृत्ति है – अपनी बात मनवाने की, प्रभावशाली दिखने की इच्छा।”
वह इस वृत्ति के साक्षी बने, इसे स्वयं मान लिए बिना।
अलग ढंग से बात करने की प्रवृत्ति का साक्षित्व
नीलम की कहानी: नीलम को अक्सर लोग कहते थे कि उनका बात करने का तरीका अलग है। वह न तो बहुत ज्यादा बोलती थीं, न ही बिल्कुल चुप रहती थीं। एक दिन, उन्होंने इस पर ध्यान दिया।
“मैं देख रही हूँ कि मेरा बात करने का तरीका प्रचलित पैटर्न से अलग है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “मैं न तो अत्यधिक सामाजिक दिखना चाहती हूँ, न ही अलग-थलग। यह मेरी जाति वृत्ति का एक पहलू है – अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने की इच्छा।”
वह इस प्रवृत्ति की साक्षी बनीं, इसके बारे में निर्णय किए बिना।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारी वाणी के पैटर्न को देखता है, उनके साथ तादात्म्य किए बिना। जैसे रेडियो सुनने वाला व्यक्ति संगीत से अलग होता है, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारी वाणी से अलग होता है।
स्थानीय पत्रकार की कहानी:
वरुण एक छोटे शहर के पत्रकार थे। वह अपने बेबाक विचारों के लिए जाने जाते थे और अक्सर स्थानीय मुद्दों पर खुलकर अपनी राय व्यक्त करते थे। एक दिन, एक सहकर्मी ने उनसे पूछा, “क्या आप कभी डरते नहीं हैं कि आपकी स्पष्टवादिता से लोग नाराज हो जाएंगे?”
वरुण ने गहरी साँस ली और कहा, “मैंने अपने भीतर एक पैटर्न देखा है। जब मैं बोलता हूँ, तो मेरे अंदर से एक आवाज आती है जो चाहती है कि लोग मुझे सुनें, मेरी बात मानें, मुझे महत्वपूर्ण समझें। यह मेरी जाति वृत्ति है – प्रभावशाली होने की, अपनी पहचान बनाने की चाह।”
“लेकिन मैं सिर्फ इस वृत्ति का साक्षी बनने का प्रयास करता हूँ। जब मैं बोलता हूँ, तो मैं देखता हूँ कि मेरे शब्द कहाँ से आ रहे हैं – सच्चाई से या प्रभाव जमाने की इच्छा से। और फिर मैं अपने शब्दों को उसी के अनुसार ढालता हूँ।”
सहकर्मी ने पूछा, “क्या यह मुश्किल नहीं है?”
वरुण ने मुस्कुराकर कहा, “शुरू में था। लेकिन जब आप अपनी वृत्तियों का साक्षी बनना सीख जाते हैं, तो आपके शब्द अधिक सत्य, अधिक करुणा से भरे और कम अहंकार से प्रेरित होते जाते हैं।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- वाणी अवलोकन: एक दिन चुनें और उस दिन अपनी हर महत्वपूर्ण बातचीत से पहले 5 सेकंड रुकें। अपने आप से पूछें: “मैं यह क्यों कह रहा/रही हूँ? क्या यह सच है या प्रभावित करने के लिए है?”
- सुनने का अभ्यास: अगली बार जब कोई आपसे बात कर रहा हो, तो सिर्फ सुनें, बिना अपनी प्रतिक्रिया या जवाब तैयार किए। देखें कि क्या आपके मन में प्रभावित करने की इच्छा जागती है।
- मौन दिवस: हर महीने एक दिन चुनें जब आप सिर्फ जरूरी बातें ही करें। देखें कि बात न करने पर आपके मन में कैसे विचार और भाव उठते हैं।
3. विचार (Thoughts) में जाति वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
सफल लोगों से प्रेरित विचारों का अवलोकन
मोहन की कहानी: मोहन एक स्टार्टअप के संस्थापक हैं। वह अक्सर सफल उद्यमियों की आत्मकथाएँ पढ़ते हैं और उनकी तरह सोचने की कोशिश करते हैं। एक दिन, ध्यान करते समय, उन्होंने इस पैटर्न पर गौर किया।
“मैं देख रहा हूँ कि मेरे विचार अक्सर सफलता और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमते हैं,” उन्होंने महसूस किया। “मैं उन लोगों की तरह सोचना चाहता हूँ जिन्होंने समाज में बड़ी सफलता पाई है। यह मेरी जाति वृत्ति है – सामाजिक पहचान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा।”
मोहन इस वृत्ति के साक्षी बने, इससे जुड़े बिना।
अलग ढंग से सोचने की प्रवृत्ति का साक्षित्व
प्रीति की कहानी: प्रीति एक डिजाइनर हैं। उन्हें अक्सर लोग कहते हैं कि उनका सोचने का तरीका अलग है। एक परियोजना पर काम करते हुए, उन्होंने इस पर विचार किया।
“मैं देख रही हूँ कि मेरी सोच प्रचलित तरीकों से अलग चलती है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी जाति वृत्ति का एक पहलू है – अपनी विशिष्ट पहचान बनाने की, अलग दिखने की इच्छा।”
वह इस प्रवृत्ति की साक्षी बनीं, इसे अच्छा या बुरा कहे बिना।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे विचारों के प्रवाह को देखता है, उनमें बहे बिना। जैसे आकाश बादलों को आते-जाते देखता है, वैसे ही अनुभवकर्ता विचारों को देखता है।
ग्रामीण शिक्षक की कहानी:
राजेंद्र एक गाँव के स्कूल में शिक्षक थे। उन्होंने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे थे। एक दिन, एक युवा शिक्षक ने उनसे पूछा, “गुरुजी, आप हमेशा इतने संतुष्ट और शांत कैसे रहते हैं, जबकि हमारे स्कूल में इतनी समस्याएँ हैं?”
राजेंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा, “देखो बेटा, मैंने अपने विचारों का गहरा अध्ययन किया है। मैंने देखा है कि हमारे मन में अलग-अलग तरह के विचार आते हैं। कभी मैं भी सोचता हूँ कि काश मैं शहर के बड़े स्कूल में होता, या बड़ा अधिकारी होता। यह मेरी जाति वृत्ति है – समाज में बड़ा पद पाने की, प्रतिष्ठित होने की इच्छा।”
“लेकिन मैं इन विचारों का सिर्फ साक्षी बनता हूँ। मैं इन्हें आने-जाने देता हूँ, जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं। मैं न तो इन्हें पकड़ता हूँ, न ही इनसे भागता हूँ। मैं सिर्फ देखता हूँ।”
युवा शिक्षक ने पूछा, “पर ऐसा करने से क्या फायदा होता है?”
राजेंद्र ने कहा, “जब तुम विचारों के साक्षी बनते हो, तो तुम्हें पता चलता है कि तुम विचार नहीं हो। तुम उससे कहीं गहरे और विशाल हो। इससे तुम्हें अपने वर्तमान में संतोष मिलता है, बिना भविष्य की चिंता या अतीत के पछतावे के।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- विचार डायरी: एक सप्ताह तक, हर शाम 5 मिनट के लिए अपने विचारों को लिखें। विशेष रूप से ध्यान दें कि कितने विचार सामाजिक प्रतिष्ठा, सफलता, और दूसरों पर प्रभाव से जुड़े हैं।
- प्रेरणा स्रोत का अवलोकन: अपने प्रेरणा स्रोतों (पुस्तकें, व्यक्ति, फिल्में) की सूची बनाएँ और देखें कि क्या इनमें एक पैटर्न है। क्या ये सब सामाजिक सफलता से जुड़े हैं?
- विचार अंतराल अभ्यास: दिन में कई बार, कुछ क्षणों के लिए, अपने विचारों के बीच अंतराल पर ध्यान दें। इन खाली स्थानों में अपने आप को अनुभव करें, विचारों से परे।
4. संबंध (Relationships) में जाति वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
स्वतंत्रता और जिम्मेदारी का अवलोकन
संदीप की कहानी: संदीप एक परिवार के मुखिया हैं। वह अपने माता-पिता, पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते हैं। एक दिन, उन्होंने अपने संबंधों के पैटर्न पर गौर किया।
“मैं देख रहा हूँ कि मुझे किसी पर निर्भर रहना पसंद नहीं है, लेकिन मैं अपने पर निर्भर लोगों की देखभाल करने की जिम्मेदारी महसूस करता हूँ,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी जाति वृत्ति है – परिवार में नेतृत्व का स्थान रखने की, सम्मानित होने की इच्छा।”
संदीप इस वृत्ति के साक्षी बने, इससे जुड़े बिना।
व्यावहारिक संबंधों का साक्षित्व
रेखा की कहानी: रेखा एक प्रोफेशनल हैं। उनके मित्र अक्सर कहते हैं कि वह बहुत व्यावहारिक हैं और भावुकता में आकर निर्णय नहीं लेतीं। एक दिन, उन्होंने इस प्रवृत्ति पर विचार किया।
“मैं देख रही हूँ कि मेरे संबंधों में एक व्यावहारिकता है,” उन्होंने महसूस किया। “मैं भावनाओं से ज्यादा तर्क और उपयोगिता पर विश्वास करती हूँ। यह मेरी जाति वृत्ति का एक पहलू है – सामाजिक और व्यावसायिक सफलता के लिए संबंधों को साधन के रूप में देखने की प्रवृत्ति।”
वह इस पैटर्न की साक्षी बनीं, इसे अच्छा या बुरा कहे बिना।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे संबंधों के पैटर्न को देखता है, उनमें उलझे बिना। जैसे दर्पण सभी चीजों को प्रतिबिंबित करता है पर उनसे प्रभावित नहीं होता, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे संबंधों को देखता है।
छोटे व्यापारी की कहानी:
रामलाल एक छोटे कपड़े के व्यवसाय के मालिक थे। उनके कई ग्राहक, कर्मचारी और आपूर्तिकर्ता थे। एक दिन, उनके बेटे ने पूछा, “पिताजी, आप इतने सारे लोगों के साथ इतने अच्छे संबंध कैसे रखते हैं?”
रामलाल ने कहा, “बेटा, मैंने अपने संबंधों में एक पैटर्न देखा है। मुझे लोगों से जुड़ना अच्छा लगता है, विशेषकर जब वे मेरे व्यापार में मदद कर सकते हैं या मुझे सामाजिक सम्मान दिला सकते हैं। यह मेरी जाति वृत्ति है – संबंधों को सामाजिक और व्यावसायिक लाभ के लिए उपयोग करने की प्रवृत्ति।”
“लेकिन मैं इस वृत्ति का साक्षी बनने का प्रयास करता हूँ। जब मैं किसी से बात करता हूँ, तो मैं देखता हूँ – क्या मैं इस व्यक्ति से कुछ पाना चाहता हूँ या वास्तव में उसकी परवाह करता हूँ? इस अवलोकन से मेरे संबंध अधिक गहरे और सच्चे होते जाते हैं।”
बेटे ने पूछा, “क्या इससे व्यापार पर असर नहीं पड़ता?”
रामलाल ने मुस्कुराकर कहा, “उल्टा, इससे व्यापार बेहतर होता है। जब तुम सच्चे संबंध बनाते हो, तो लोग तुम्हारी ईमानदारी और निष्ठा को पहचानते हैं। लेकिन मैं अब संबंधों को सिर्फ व्यापार के लिए नहीं, उनके अपने महत्व के लिए भी मूल्य देता हूँ।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- संबंध अवलोकन: अपने मुख्य संबंधों की सूची बनाएँ और प्रत्येक के सामने लिखें कि आप इस संबंध से क्या चाहते हैं। फिर देखें – क्या अधिकांश संबंध सामाजिक लाभ या प्रतिष्ठा से जुड़े हैं?
- निस्वार्थ कार्य अभ्यास: हर सप्ताह एक ऐसा कार्य करें जिससे आपको कोई सामाजिक लाभ न मिले। देखें कि इस दौरान आपके मन में क्या विचार आते हैं।
- निर्भरता का अवलोकन: जब कोई आप पर निर्भर हो, तो अपने भीतर उठने वाले भावों का अवलोकन करें। क्या आप महत्वपूर्ण महसूस करते हैं? क्या आप बोझ महसूस करते हैं?
5. मनोरंजन (Recreation) में जाति वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
महान लोगों की जीवनियों में रुचि का अवलोकन
विजय की कहानी: विजय एक कॉलेज छात्र हैं। उन्हें अपना अधिकांश खाली समय महान उद्यमियों, नेताओं और विचारकों की जीवनियाँ पढ़ने में बिताना पसंद है। एक दिन, उन्होंने इस रुचि पर गौर किया।
“मैं देख रहा हूँ कि मुझे ऐसे लोगों के बारे में पढ़ना पसंद है जिन्होंने दुनिया में बड़ा प्रभाव छोड़ा,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी जाति वृत्ति है – सफलता और प्रभाव पाने की, समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखने की इच्छा।”
विजय इस वृत्ति के साक्षी बने, इसे अच्छा या बुरा कहे बिना।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे मनोरंजन के विकल्पों को देखता है, उनके साथ तादात्म्य किए बिना। जैसे कोई संगीत को सुनता है लेकिन उसमें खो नहीं जाता, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे मनोरंजन के तरीकों को देखता है।
लाइब्रेरियन की कहानी:
सुमन जी पिछले 25 वर्षों से अपने शहर के पुस्तकालय में काम कर रहीं थीं। उनके पास हजारों किताबें थीं, लेकिन उन्होंने देखा कि अधिकांश लोग जीवनियाँ और सफलता की कहानियाँ ही पढ़ना पसंद करते थे। एक दिन, एक युवा पाठक ने उनसे पूछा, “आपको किस तरह की किताबें पढ़ना पसंद है?”
सुमन जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “मुझे भी पहले सिर्फ महान लोगों की जीवनियाँ पढ़ना पसंद था। मैंने देखा कि मेरे भीतर एक इच्छा थी – उनकी तरह बनने की, समाज में प्रतिष्ठित होने की, सफलता पाने की। यह मेरी जाति वृत्ति थी – सामाजिक पहचान और स्थिति के प्रति आकर्षण।”
“लेकिन धीरे-धीरे, मैंने इस वृत्ति का साक्षी बनना सीखा। अब मैं विभिन्न प्रकार की किताबें पढ़ती हूँ – कभी जीवनियाँ, कभी कविता, कभी विज्ञान। मैं देखती हूँ कि पढ़ते समय मेरे मन में क्या भाव उठते हैं, कौन सी किताबें मुझे सिर्फ सामाजिक प्रतिष्ठा की चाह से आकर्षित करती हैं और कौन सी वास्तव में मेरे हृदय को छूती हैं।”
युवा पाठक ने पूछा, “तो आप कहना चाहती हैं कि सफलता की कहानियाँ पढ़ना गलत है?”
सुमन जी ने कहा, “बिलकुल नहीं। कोई भी पुस्तक अच्छी या बुरी नहीं होती। महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने पढ़ने के उद्देश्य के प्रति जागरूक रहें। क्या हम सिर्फ अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए पढ़ रहे हैं, या वास्तव में कुछ सीखने और विकसित होने के लिए? जब हम इस अंतर को देखते हैं, तो हमारा पढ़ना अधिक सार्थक और आनंददायक हो जाता है।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- मनोरंजन डायरी: एक सप्ताह तक अपने मनोरंजन के तरीकों को नोट करें और देखें कि इनमें कौन से जाति वृत्ति से प्रेरित हैं (सामाजिक प्रतिष्ठा, सफलता की चाह, आदि)।
- विविधता प्रयोग: अपने मनोरंजन में विविधता लाएँ। कुछ ऐसा करें जो आम तौर पर आपकी सामाजिक पहचान से जुड़ा नहीं है। देखें कि यह कैसा महसूस होता है।
- अवलोकन पठन: अगली बार जब आप कोई जीवनी पढ़ें, तो अपने भीतर उठने वाले भावों का अवलोकन करें। क्या आप उस व्यक्ति की तरह बनना चाहते हैं? क्यों?
6. स्वास्थ्य (Health) में जाति वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
सामान्य स्वास्थ्य का अवलोकन
अरुण की कहानी: अरुण एक मिडिल-एज प्रोफेशनल हैं। वह अपने स्वास्थ्य के बारे में न तो बहुत चिंतित हैं, न ही बिल्कुल लापरवाह। एक दिन, वार्षिक स्वास्थ्य जाँच के दौरान, उन्होंने अपने स्वास्थ्य के प्रति अपने रवैये पर विचार किया।
“मैं देख रहा हूँ कि मेरा स्वास्थ्य सामान्य है, और मैं इसे बहुत महत्व नहीं देता,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी जाति वृत्ति का एक पहलू है – शारीरिक उपस्थिति को उतना महत्व न देना, जितना सामाजिक और व्यावसायिक सफलता को।”
अरुण इस वृत्ति के साक्षी बने, इसे निर्णित किए बिना।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे स्वास्थ्य संबंधी निर्णयों और आदतों को देखता है, उनसे प्रभावित हुए बिना। जैसे कोई वाहन का रखरखाव करता है पर स्वयं को वाहन नहीं मानता, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे शरीर के लिए निर्णयों को देखता है।
ग्रामीण चिकित्सक की कहानी:
डॉक्टर वर्मा एक गाँव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र चलाते थे। उन्होंने देखा कि अधिकांश ग्रामीण अपने स्वास्थ्य को लेकर कैसे रवैया रखते हैं। एक दिन, एक युवा मरीज ने उनसे पूछा, “डॉक्टर साहब, आप खुद के स्वास्थ्य का ध्यान कैसे रखते हैं?”
डॉक्टर वर्मा ने कहा, “मैंने अपने भीतर भी देखा है कि स्वास्थ्य के प्रति मेरा रवैया कैसा है। कभी-कभी मैं भी अपने स्वास्थ्य को नजरअंदाज कर देता हूँ, विशेषकर जब काम का दबाव अधिक होता है। यह मेरी जाति वृत्ति का एक हिस्सा है – समाज में अपने काम और योगदान को शरीर की देखभाल से अधिक महत्व देना।”
“लेकिन मैं इस वृत्ति का साक्षी बनने का प्रयास करता हूँ। जब मैं देखता हूँ कि मैं अपने स्वास्थ्य को नजरअंदाज कर रहा हूँ, तो मैं रुकता हूँ और सोचता हूँ – क्या मैं अपने शरीर के साथ न्याय कर रहा हूँ? क्या मैं अपने शरीर को सिर्फ एक उपकरण की तरह इस्तेमाल कर रहा हूँ, या इसकी देखभाल कर रहा हूँ?”
मरीज ने पूछा, “और इससे क्या फर्क पड़ता है?”
डॉक्टर वर्मा ने मुस्कुराकर कहा, “जब हम अपने शरीर के प्रति अपने रवैये के साक्षी बनते हैं, तो हम अपने शरीर की जरूरतों को अधिक स्पष्टता से देखते हैं। हम अपने शरीर को न तो सिर्फ सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम मानते हैं (जैसे स्टेटस के लिए जिम जाना), न ही इसे पूरी तरह नजरअंदाज करते हैं। हम एक संतुलित दृष्टिकोण विकसित करते हैं, जहाँ शरीर की देखभाल भी महत्वपूर्ण है, बिना इसके प्रति आसक्त हुए।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- स्वास्थ्य अवलोकन: एक सप्ताह तक अपने स्वास्थ्य संबंधी निर्णयों को नोट करें और देखें कि इनमें से कितने सामाजिक प्रतिष्ठा या दिखावे से प्रेरित हैं।
- शरीर श्रवण अभ्यास: हर दिन 5 मिनट के लिए शांति से बैठकर अपने शरीर की आवाज सुनें। शरीर क्या चाहता है, क्या आवश्यकताएँ हैं? इसे सामाजिक अपेक्षाओं से अलग सुनें।
- संतुलित दृष्टिकोण: अपने स्वास्थ्य निर्णयों में, स्वयं से पूछें: “क्या यह निर्णय मेरे शरीर के हित में है या सिर्फ सामाजिक अपेक्षाओं के कारण है?”
जाति वृत्ति की जागरूकता और उससे आगे बढ़ना
हमारी जाति वृत्ति – सामाजिक पहचान, प्रतिष्ठा, सफलता और प्रभाव की चाह – हमारी मानवीय प्रकृति का एक हिस्सा है। इसे बुरा या अनुचित मानने की आवश्यकता नहीं है। सच्चा मार्ग है इसके प्रति जागरूक होना, इसका अनुभवकर्ता बनना।
वरिष्ठ महाराज का उपदेश:
एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु अक्सर अपने शिष्यों से कहते थे, “जाति वृत्ति न तो अच्छी है, न बुरी – यह सिर्फ है। यह हमारी मानवीय प्रकृति का हिस्सा है। इससे लड़ो मत, इसे दबाओ मत। बस इसके साक्षी बनो।”
एक बार एक शिष्य ने पूछा, “महाराज, पर क्या सामाजिक प्रतिष्ठा और सफलता की इच्छा रखना गलत नहीं है? क्या यह आध्यात्मिक विकास में बाधा नहीं है?”
महाराज ने मुस्कुराकर कहा, “जब तक तुम इन इच्छाओं से तादात्म्य रखते हो, तब तक ये बाधा हैं। जब तुम इनके साक्षी बन जाते हो, तब ये सीढ़ी बन जाती हैं। क्योंकि इन्हें देखकर, तुम स्वयं को इनसे परे जानते हो।”
शिष्य ने फिर पूछा, “तो क्या हमें सामाजिक सफलता का प्रयास छोड़ देना चाहिए?”
महाराज ने कहा, “नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं। तुम अपने कर्तव्य करो, अपने लक्ष्यों का अनुसरण करो, सफलता का प्रयास करो। परंतु साथ ही साथ, इन सबके पीछे की वृत्तियों के साक्षी बनो। तब तुम्हारी सफलता का आधार अहंकार नहीं, बल्कि प्रेम और सेवा होगा।”
दैनिक जीवन में जाति वृत्ति के व्यावहारिक उदाहरण
1. कार्यालय में दिखाई देने वाली जाति वृत्ति
अनिता का अनुभव: अनिता एक कंपनी में मैनेजर हैं। एक महत्वपूर्ण मीटिंग में, उन्होंने अपना विचार रखा, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर बाद, उनके एक वरिष्ठ सहकर्मी ने वही विचार रखा और सभी ने उसकी सराहना की। अनिता के भीतर गुस्सा और अपमान का भाव जागा।
अनुभवकर्ता के रूप में, अनिता ने इस क्षण को देखा: “मैं देख रही हूँ कि मेरे भीतर मान्यता पाने की, महत्वपूर्ण माने जाने की इच्छा है। यह मेरी जाति वृत्ति है – सामाजिक प्रतिष्ठा और मान्यता की चाह।”
इस जागरूकता से, वह अपने भावों से थोड़ा अलग हो सकीं और स्थिति को अधिक शांति से देख सकीं।
2. परिवार में दिखाई देने वाली जाति वृत्ति
मोहन का अनुभव: मोहन के बेटे ने बताया कि वह इंजीनियर नहीं, बल्कि संगीतकार बनना चाहता है। मोहन के मन में तुरंत चिंता और निराशा का भाव जागा – “लोग क्या कहेंगे? हमारे परिवार में सब इंजीनियर हैं।”
अनुभवकर्ता के रूप में, मोहन ने इस प्रतिक्रिया को देखा: “मैं देख रहा हूँ कि मेरे भीतर सामाजिक प्रतिष्ठा और परंपरागत सफलता की चाह है। यह मेरी जाति वृत्ति है – समाज में एक निश्चित छवि बनाए रखने की इच्छा।”
इस जागरूकता से, वह अपने बेटे की इच्छाओं को अधिक खुले मन से सुन सके।
3. सोशल मीडिया का उदाहरण
प्रिया का अनुभव: प्रिया ने अपनी एक सुंदर छुट्टी की तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की। जब उन्हें अधिक लाइक्स और कमेंट्स नहीं मिले, तो वह निराश हो गईं।
अनुभवकर्ता के रूप में, प्रिया ने इस प्रतिक्रिया को देखा: “मैं देख रही हूँ कि मेरे भीतर सामाजिक मान्यता और प्रशंसा पाने की चाह है। यह मेरी जाति वृत्ति है – दूसरों की नज़रों में अच्छा और सफल दिखने की इच्छा।”
इस जागरूकता से, वह अपनी खुशी को दूसरों की प्रतिक्रिया से अलग करने की ओर एक कदम बढ़ सकीं।
अनुभवकर्ता के दृष्टिकोण से जाति वृत्ति से ऊपर उठने की यात्रा
अमित की यात्रा:
अमित एक प्रतिष्ठित वकील थे। उन्होंने अपना करियर सामाजिक प्रतिष्ठा और सफलता की चाह से शुरू किया था। वह बड़े मुकदमे जीतते, महंगी कारें खरीदते, और समाज में अपनी एक खास पहचान रखते थे। फिर भी, अंदर से वह खाली और असंतुष्ट महसूस करते थे।
एक दिन, एक पुराने मित्र ने उन्हें एक आध्यात्मिक शिविर में आमंत्रित किया। वहाँ उन्होंने अनुभवकर्ता की अवधारणा के बारे में सीखा – वह जो देखता है, अनुभव करता है, पर स्वयं विचारों, भावनाओं और वृत्तियों से अलग है।
अमित ने अपनी जाति वृत्ति को देखना शुरू किया:
- वह देखते कि कैसे वह हर बातचीत में अपनी बुद्धिमत्ता और ज्ञान दिखाना चाहते हैं
- वह देखते कि कैसे वह अपनी सफलता की कहानियां दूसरों को सुनाते रहते हैं
- वह देखते कि कैसे वह हमेशा अपने सामाजिक नेटवर्क को बढ़ाने की सोचते रहते हैं
वह इन सब प्रवृत्तियों के साक्षी बनते गए, न इनसे लड़े, न ही इनमें खोए।
धीरे-धीरे, एक अद्भुत परिवर्तन आया। जब आप किसी वृत्ति के साक्षी बनते हैं, तो उसकी पकड़ कमजोर हो जाती है। अमित ने पाया कि वह अब अपने काम को अधिक सहजता से, सेवाभाव से कर पा रहे थे। वह अब भी सफल थे, लेकिन सफलता का परिभाषा बदल गई थी।
एक दिन, एक युवा वकील ने उनसे पूछा, “अमित सर, आप इतने शांत और संतुष्ट कैसे रहते हैं, जबकि इस पेशे में इतना दबाव है?”
अमित ने मुस्कुराकर कहा, “क्योंकि मैंने अपनी वृत्तियों को देखना सीख लिया है। जब मैं देखता हूँ कि मेरे अंदर प्रतिष्ठा, सफलता और मान्यता की चाह जागती है, तो मैं उसका साक्षी बनता हूँ, उसमें खोता नहीं। मैं वह नहीं हूँ जो समाज मुझे मानता है, न ही वह जो मैं खुद को मानता था। मैं इससे कहीं गहरा और विशाल हूँ – मैं अनुभवकर्ता हूँ, साक्षी हूँ, चैतन्य हूँ।”
निष्कर्ष: जाति वृत्ति से परे जीवन की यात्रा
जाति वृत्ति – सामाजिक पहचान, प्रतिष्ठा, सफलता और प्रभाव की चाह – मानव स्वभाव का एक स्वाभाविक हिस्सा है। यह न तो अच्छी है, न बुरी – यह सिर्फ है।
जब हम अनुभवकर्ता होते हैं – इन वृत्तियों के साक्षी, दृष्टा – तब हम इनके प्रभाव से स्वतंत्र हो जाते हैं। हम इनसे लड़ते नहीं, इन्हें दबाते नहीं, इन्हें अस्वीकार नहीं करते – हम सिर्फ इन्हें देखते हैं।
और इस देखने में, एक अद्भुत परिवर्तन होता है। हम अपने अंदर एक ऐसे स्थान को पाते हैं जो सामाजिक मान्यता, प्रतिष्ठा या सफलता पर निर्भर नहीं है। हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानते हैं, जो जाति वृत्ति से परे है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि हम सामाजिक जीवन, करियर या सफलता का त्याग कर दें। बल्कि, हम इन सबको अधिक स्वतंत्रता, सहजता और प्रेम से जीते हैं – इनके गुलाम बने बिना, इनकी दासता से मुक्त होकर।
आज ही से अपने जीवन में जाति वृत्ति के प्रति साक्षी भाव विकसित करें। अपनी सामाजिक पहचान, प्रतिष्ठा और सफलता की इच्छाओं को देखें। उन्हें न तो अच्छा कहें, न बुरा। बस देखें, और उस देखने में स्वतंत्रता पाएँ।
याद रखें, आप अपनी वृत्तियों के स्वामी नहीं, न ही दास – आप उनके साक्षी हैं, अनुभवकर्ता हैं, आत्मन हैं।
by Ajay Shukla | Apr 26, 2025 | Sanatan Soul
भोग वृत्ति को साक्षी भाव से समझना: अनुभवकर्ता की दृष्टि
हमारी जीवन यात्रा में हम कई प्रकार की वृत्तियों का अनुभव करते हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण है – भोग वृत्ति, जिसका अर्थ है सुख, आनंद और भौतिक चीजों की ओर आकर्षण। यह वृत्ति हमारे अंदर इच्छाओं, आकांक्षाओं और तृप्ति की भावना को जन्म देती है।
जब हम अनुभवकर्ता या साक्षी के रूप में इस वृत्ति को देखते हैं, तो हम इसके प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। अनुभवकर्ता को कई नामों से जाना जाता है – दृष्टा, साक्षी, चैतन्य, आत्मन। यह वह है जो हमारे अंदर देखता है, अनुभव करता है, पर किसी भी वृत्ति से प्रभावित नहीं होता।
ज्ञान मार्ग पर चलते हुए, हम भोग वृत्ति को ‘नियंत्रित’ नहीं करते, बल्कि उसे ‘देखते’ हैं, उसके ‘साक्षी’ बनते हैं, और उसका ‘अवलोकन’ करते हैं। आइए भोग वृत्ति के विभिन्न पहलुओं को साक्षी भाव से समझें।
1. व्यवहार (Behavior) में भोग वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
सुख-केंद्रित व्यवहार का अवलोकन
रोहन की कहानी: रोहन एक 32 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। हर महीने वेतन मिलते ही, वह नए गैजेट्स, कपड़े या रेस्टोरेंट्स में पैसे खर्च करते हैं। एक दिन, वह अपने इस व्यवहार को देखते हैं।
“मैं देख रहा हूँ कि मेरे व्यवहार में एक पैटर्न है – मैं नई-नई चीजों से खुशी पाने की कोशिश करता हूँ,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी भोग वृत्ति है – तत्काल सुख पाने की इच्छा।”
रोहन इस वृत्ति के साक्षी बने, उसमें उलझे नहीं। उन्होंने इसे न तो बुरा कहा, न अच्छा – बस देखा।
आराम और सुविधा के प्रति झुकाव का साक्षित्व
नीलम की कहानी: नीलम एक बैंक में काम करती हैं। जब भी कोई कठिन काम आता है, वह उसे टालने की कोशिश करती हैं और आसान कामों को चुनती हैं। एक दिन, उन्होंने इस प्रवृत्ति पर ध्यान दिया।
“मैं देख रही हूँ कि मेरा झुकाव आराम और सुविधा की ओर है,” उन्होंने महसूस किया। “मैं चुनौतियों से बचती हूँ और आसान रास्ते पर चलना चाहती हूँ।”
वह इस प्रवृत्ति की साक्षी बनीं, इससे लड़ीं नहीं।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे व्यवहार के पैटर्न को देखता है, उन्हें निर्णय किए बिना। जैसे आकाश बादलों को आते-जाते देखता है, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे व्यवहार को देखता है।
चाय वाले की कहानी:
रामपुर गाँव के चौराहे पर जगदीश चाय बेचते थे। वह हमेशा मुस्कुराते रहते थे, भले ही ग्राहक कितने भी अधीर या नाराज हों। एक दिन एक ग्राहक ने पूछा, “जगदीश भाई, आप हमेशा इतने शांत कैसे रहते हैं? लोग आपसे बहुत मांगें करते हैं, फिर भी आप कभी परेशान नहीं होते।”
जगदीश ने चाय बनाते हुए कहा, “देखिए साहब, मैंने अपने अंदर एक आदत बना ली है। मैं अपनी इच्छाओं और दूसरों की मांगों को देखता हूँ, जैसे कोई फिल्म देखता है। मैं देखता हूँ कि कभी-कभी मेरे मन में भी आता है कि सब कुछ मेरी इच्छा के अनुसार होना चाहिए, सब मुझे खुश करें। यह मेरी भोग वृत्ति है – सुख पाने की, अपनी इच्छा पूरी करवाने की चाह।”
“लेकिन मैं इन इच्छाओं से अलग हूँ, मैं इनका दृष्टा हूँ। जैसे-जैसे मैं इन्हें देखता हूँ, ये अपनी शक्ति खो देती हैं।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- व्यवहार अवलोकन: एक दिन के लिए, जब भी आप कोई निर्णय लें (जैसे क्या खाएं, क्या देखें, क्या खरीदें), स्वयं से पूछें: “क्या यह निर्णय तत्काल सुख पाने के लिए है?”
- साक्षी जर्नल: हर रात 5 मिनट के लिए उन मौकों को नोट करें जहां आपने आराम या सुख के लिए कुछ चुना। बिना आलोचना के, बस देखें कि क्या पैटर्न उभरता है।
- चुनौती दिवस: हर सप्ताह एक दिन चुनें जहां आप जानबूझकर कुछ चुनौतीपूर्ण करें और देखें कि आपका मन कैसी प्रतिक्रिया देता है। साक्षी बनकर इस प्रतिक्रिया को देखें।
2. वाणी (Speech) में भोग वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
स्वयं-केंद्रित वार्तालाप का अवलोकन
प्रिया की कहानी: प्रिया अक्सर अपनी दोस्तों के साथ चाय पर मिलती हैं। एक दिन उन्होंने ध्यान दिया कि वह अधिकतर अपनी नई खरीदारी, अपनी इच्छाओं और अपनी समस्याओं के बारे में ही बात करती हैं।
“मैं देख रही हूँ कि मेरी बातचीत अक्सर मेरे आस-पास ही घूमती है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी भोग वृत्ति है – सब कुछ अपने सुख और अपनी इच्छाओं के नजरिए से देखना।”
वह इस पैटर्न की साक्षी बनीं, बिना आत्म-दोष के।
मनोरंजक और सनसनीखेज बातों का साक्षित्व
संजय की कहानी: संजय अपने दोस्तों के बीच मशहूर हैं क्योंकि वह हमेशा मजेदार, रोचक और कभी-कभी सनसनीखेज बातें करते हैं। एक दिन उन्होंने देखा कि वह अक्सर बातों को बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं ताकि दूसरे उन्हें और अधिक ध्यान दें।
“मैं देख रहा हूँ कि मैं लोगों का ध्यान पाने के लिए अपनी बातों में मसाला मिलाता हूँ,” उन्होंने महसूस किया। “यह मेरी भोग वृत्ति है – ध्यान पाने की, प्रशंसा पाने की चाह।”
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारी वाणी के पैटर्न को देखता है, बिना तादात्म्य के। जैसे नदी के किनारे बैठा व्यक्ति पानी के प्रवाह को देखता है, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारी बातों के प्रवाह को देखता है।
सब्जी विक्रेता की कहानी:
लक्ष्मी बाई पिछले 30 वर्षों से अपने शहर के बाजार में सब्जियां बेचती थीं। वह बहुत कम बोलती थीं, लेकिन जब बोलती थीं तो लोग ध्यान से सुनते थे। एक दिन एक नई दुकानदार ने उनसे पूछा, “आप इतना कम क्यों बोलती हैं? अगर आप ग्राहकों को ललचाएं और अपनी सब्जियों की तारीफ करें तो शायद ज्यादा बिक्री हो।”
लक्ष्मी बाई ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटी, मैंने साल दर साल देखा है कि मेरे अंदर भी बोलने की, अपनी तारीफ करने की, दूसरों को प्रभावित करने की इच्छा आती है। ये सब हमारी भोग वृत्ति है – अच्छा लगने की, महत्वपूर्ण महसूस करने की चाह।”
“मैं इन इच्छाओं को देखती हूँ और फिर वापस अपने काम पर आ जाती हूँ। जरूरत से ज्यादा बोलना आवश्यक नहीं है। मेरी सब्जियां अपनी गुणवत्ता से बिकती हैं, शब्दों से नहीं।”
नई दुकानदार ने पूछा, “पर आपको बोलने से रोकना नहीं पड़ता?”
लक्ष्मी बाई ने कहा, “मैं रोकती नहीं, बस देखती हूँ। बोलने की इच्छा आती है, मैं देखती हूँ, और अधिकांश समय वह इच्छा अपने आप शांत हो जाती है। मैं उसकी साक्षी हूँ, उसकी मालकिन नहीं।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- वाणी अवलोकन: एक दिन के लिए, जब भी आप बातचीत करें, ध्यान दें कि आप कितनी बार “मैं” या “मेरा” शब्द का इस्तेमाल करते हैं। बिना निर्णय के, केवल अवलोकन करें।
- मौन अभ्यास: हर दिन 30 मिनट का समय निकालें जहां आप सिर्फ सुनें, बोलें नहीं। देखें कि इस दौरान आपके मन में क्या विचार आते हैं, विशेष रूप से बोलने की इच्छा।
- पैटर्न नोटिस: ध्यान दें कि आप किन विषयों पर बात करते हुए उत्साहित और ऊर्जावान हो जाते हैं। क्या ये विषय अक्सर आपके सुख, आपकी उपलब्धियों या आपकी इच्छाओं से जुड़े होते हैं?
3. विचार (Thoughts) में भोग वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
आनंद-केंद्रित सोच का अवलोकन
विकास की कहानी: विकास एक कॉलेज छात्र हैं। वह अक्सर सोचते हैं, “जीवन बहुत छोटा है, इसे भरपूर जीना चाहिए।” उनके ज्यादातर निर्णय तत्काल आनंद के आधार पर होते हैं।
एक दिन, एक ध्यान शिविर में, उन्होंने अपने इस विचार पैटर्न को देखा। “मैं देख रहा हूँ कि मेरे विचार आनंद के इर्द-गिर्द घूमते हैं,” उन्होंने महसूस किया। “यह मेरी भोग वृत्ति है – हर क्षण का आनंद लेने की, गहरे सोच-विचार से बचने की चाह।”
वह इस सोच के साक्षी बने, इसे बदलने की कोशिश नहीं की।
सुख की योजनाओं में उलझे विचारों का साक्षित्व
मीना की कहानी: मीना अक्सर भविष्य की योजनाएँ बनाती रहती हैं – कहाँ घूमने जाएंगी, क्या खरीदेंगी, किस रेस्टोरेंट में खाएंगी। एक दिन उन्होंने इस पैटर्न को नोटिस किया।
“मैं देख रही हूँ कि मेरे विचार अक्सर भविष्य के सुख की योजनाओं में उलझे रहते हैं,” उन्होंने स्वयं से कहा। “मैं वर्तमान क्षण को जीने के बजाय भविष्य के सुख में खोई रहती हूँ।”
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे विचारों को देखता है, उनमें खोता नहीं। जैसे रात के आकाश में तारों को देखने वाला व्यक्ति उनसे अलग रहता है, वैसे ही अनुभवकर्ता विचारों से अलग रहता है।
टैक्सी ड्राइवर की कहानी:
गुरमीत सिंह पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में टैक्सी चला रहे थे। एक दिन एक यात्री ने पूछा, “आपको अपना काम पसंद है?”
गुरमीत ने मुस्कुराकर कहा, “देखिए साहब, काम तो काम है। पर मैंने अपने मन को देखना सीखा है। जब मैं ट्रैफिक में फंसता हूँ, तो मेरे मन में विचार आते हैं – ‘काश मैं अभी घर पर होता और आराम कर रहा होता’ या ‘काश मैं एक बड़ी कार का मालिक होता’।”
“मैं इन विचारों को देखता हूँ, इनका साक्षी बनता हूँ। मैं जानता हूँ कि ये भोग वृत्ति के विचार हैं – आराम की चाह, अधिक पाने की इच्छा, सुख की खोज।”
यात्री ने पूछा, “तो आप इन विचारों से परेशान नहीं होते?”
गुरमीत ने कहा, “देखिए, विचार तो आएंगे-जाएंगे, जैसे सड़क पर कारें आती-जाती हैं। मैं उन्हें देखता हूँ, फिर वापस सड़क पर ध्यान लगा देता हूँ। मैं न उन विचारों का मालिक हूँ, न ही उनका गुलाम – मैं उनका साक्षी हूँ।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- विचार अवलोकन: हर दिन 10 मिनट शांति से बैठें और अपने विचारों को देखें। विशेष रूप से, सुख, आनंद और इच्छाओं से जुड़े विचारों को नोट करें।
- प्रश्न पूछें: जब भी आप कोई निर्णय लेने वाले हों, स्वयं से पूछें: “क्या यह निर्णय गहरे सोच-विचार पर आधारित है या सिर्फ तत्काल सुख के लिए है?”
- वर्तमान क्षण अभ्यास: दिन में कई बार, कुछ क्षणों के लिए, सिर्फ वर्तमान में होने का अभ्यास करें। देखें कि मन कितनी बार भविष्य के सुख में या अतीत की यादों में भटक जाता है।
4. संबंध (Relationships) में भोग वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
स्वार्थपूर्ण संबंधों का अवलोकन
अजय की कहानी: अजय के कई दोस्त हैं, लेकिन वह अक्सर उन लोगों के साथ अधिक समय बिताते हैं जो उनके लिए उपयोगी हैं या जिनके साथ वह आनंद ले सकते हैं। एक दिन, उन्होंने इस पैटर्न को देखा।
“मैं देख रहा हूँ कि मैं अपने संबंधों में अक्सर ‘मुझे क्या मिलेगा’ की सोच रखता हूँ,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी भोग वृत्ति है – हर संबंध से कुछ पाने की, सुख प्राप्त करने की चाह।”
वह इस प्रवृत्ति के साक्षी बने, बिना आत्म-निंदा के।
आकर्षण पर आधारित संबंधों का साक्षित्व
सोनाली की कहानी: सोनाली के कई अल्पकालिक रिश्ते रहे हैं। वह अक्सर शुरुआती आकर्षण के आधार पर रिश्ते शुरू करती हैं, लेकिन जैसे ही वह आकर्षण कम होता है, वह नए रिश्ते की ओर देखने लगती हैं।
एक दिन, इस पैटर्न पर चिंतन करते हुए, उन्होंने कहा, “मैं देख रही हूँ कि मेरे संबंध अक्सर आकर्षण और उत्तेजना पर आधारित होते हैं, गहरे जुड़ाव पर नहीं। यह मेरी भोग वृत्ति है – नए-नए अनुभवों की, उत्तेजना की खोज।”
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे संबंधों के पैटर्न को देखता है, उनसे जुड़े बिना। जैसे कोई चित्रकार अपने बनाए चित्र को दूर से देखता है, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे संबंधों को देखता है।
सब्जी मंडी के किसान की कहानी:
रामलाल पिछले 40 वर्षों से शहर की सब्जी मंडी में अपनी उपज बेचते थे। उनके कई ग्राहक थे – कुछ नियमित, कुछ अनियमित। एक दिन एक युवा किसान ने उनसे पूछा, “चाचा, आप सबके साथ इतना अच्छा व्यवहार कैसे करते हैं? कुछ ग्राहक तो इतने मुश्किल होते हैं।”
रामलाल ने कहा, “बेटा, मैंने देखा है कि हम संबंधों में अक्सर क्या चाहते हैं – सम्मान, पैसा, प्यार, मान्यता। ये सब भोग वृत्ति के हिस्से हैं – कुछ पाने की, अपनी जरूरतें पूरी करवाने की चाह। मैं अपने भीतर इन इच्छाओं को देखता हूँ, इनका साक्षी बनता हूँ।”
“जब कोई ग्राहक मुझसे बदतमीजी करता है, तो मैं देखता हूँ कि मेरे अंदर गुस्सा आता है, बदला लेने की इच्छा होती है। मैं इसे भी देखता हूँ। फिर मैं अपने काम पर लौट आता हूँ। न मैं इन भावनाओं का गुलाम हूँ, न ही मालिक – मैं साक्षी हूँ।”
युवा किसान ने पूछा, “लेकिन इससे क्या फायदा होता है?”
रामलाल मुस्कुराए, “जब आप साक्षी बन जाते हैं, तो संबंध विशुद्ध हो जाते हैं। आप देते हैं क्योंकि देना चाहते हैं, पाने की अपेक्षा के बिना। यह स्वतंत्रता है।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- संबंध अवलोकन: अपने प्रमुख संबंधों की सूची बनाएँ और प्रत्येक के सामने लिखें कि आप उस संबंध से क्या चाहते हैं। बिना निर्णय के, सिर्फ अवलोकन करें।
- निस्वार्थ अभ्यास: हर दिन कम से कम एक ऐसा कार्य करें जहां आप किसी के लिए बिना किसी अपेक्षा के कुछ करें। इस दौरान अपने विचारों और भावनाओं का अवलोकन करें।
- संबंध ध्यान: जब भी आप किसी के साथ हों, कुछ क्षणों के लिए सिर्फ उनके साथ होने का अनुभव करें, बिना कुछ पाने या देने की इच्छा के। देखें कि यह कैसा महसूस होता है।
5. मनोरंजन (Recreation) में भोग वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
यात्रा और छुट्टियों के प्रति आकर्षण का अवलोकन
राजीव की कहानी: राजीव को यात्रा करना बहुत पसंद है। वह हर कुछ महीनों में नई जगहों पर घूमने जाते हैं और सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरें शेयर करते हैं। एक दिन, उन्होंने इस शौक पर गहराई से विचार किया।
“मैं देख रहा हूँ कि मुझे नई जगहों पर जाने, नए अनुभव पाने की ललक है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी भोग वृत्ति है – नए-नए अनुभवों के माध्यम से आनंद पाने की, दैनिक जीवन से पलायन करने की चाह।”
वह इस प्रवृत्ति के साक्षी बने, इसे दबाने की कोशिश नहीं की।
विलासितापूर्ण मनोरंजन का साक्षित्व
अदिति की कहानी: अदिति को शॉपिंग मॉल्स में जाना, महंगे रेस्टोरेंट्स में खाना और फैशन शो देखना पसंद है। एक दिन उन्होंने इस रुचि पर चिंतन किया।
“मैं देख रही हूँ कि मुझे विलासिता और शानदार चीजों से घिरे रहने में आनंद आता है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी भोग वृत्ति है – चमक-दमक, सुंदरता और विलासिता की ओर आकर्षण।”
वह इस प्रवृत्ति की साक्षी बनीं, इसे बुरा समझे बिना।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे मनोरंजन के विकल्पों को देखता है, उनसे तादात्म्य किए बिना। जैसे कोई संगीत सुनता है बिना उसमें खो जाए, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे मनोरंजन के तरीकों को देखता है।
रिटायर्ड शिक्षक की कहानी:
शारदा जी 35 साल स्कूल में पढ़ाने के बाद रिटायर हो गईं थीं। एक दिन उनकी पूर्व छात्रा उनसे मिलने आई और पूछा, “मैडम, आप अपना समय कैसे बिताती हैं? क्या आप भी घूमने-फिरने जाती हैं जैसा कि हर कोई रिटायरमेंट के बाद करता है?”
शारदा जी मुस्कुराईं और कहीं, “देखो बेटा, मैंने देखा है कि हम सभी के अंदर ‘कुछ करते रहने की’, ‘कहीं जाते रहने की’, ‘नए अनुभव पाने की’ इच्छा होती है। यह हमारी भोग वृत्ति है – हर पल का आनंद लेने की, कभी न रुकने की चाह।”
“मैं भी कभी-कभी घूमने जाती हूँ, पर मैंने अपने भीतर इस चाह को देखना सीखा है। कभी-कभी मैं अपने घर के बगीचे में बैठकर सिर्फ पक्षियों को देखती हूँ और उतना ही आनंद पाती हूँ जितना किसी पर्यटन स्थल पर जाकर। मनोरंजन बाहर नहीं, भीतर है।”
छात्रा ने पूछा, “पर क्या आपको कभी ऊब नहीं लगती?”
शारदा जी ने कहा, “ऊब भी एक अनुभव है, और मैं उसकी भी साक्षी बनती हूँ। मैं देखती हूँ कि ऊब के पीछे भी एक इच्छा है – नित्य नए उत्तेजना की, सतत मनोरंजन की। जब मैं इसे देखती हूँ, तो अक्सर ऊब अपने आप चली जाती है, और मैं वर्तमान क्षण में शांति पाती हूँ।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- मनोरंजन डायरी: एक हफ्ते तक अपने सभी मनोरंजन के तरीकों को नोट करें। हर मनोरंजन के बाद, अपने आप से पूछें: “क्या इससे मुझे वास्तविक संतुष्टि मिली या यह सिर्फ क्षणिक सुख था?”
- शांत मनोरंजन: कुछ ऐसे मनोरंजन के तरीके अपनाएँ जो शांत और अंतर्मुखी हों, जैसे प्रकृति में समय बिताना, किताब पढ़ना, या शांति से बैठना।
- अतिरेक अवलोकन: अगली बार जब आप किसी मनोरंजक गतिविधि में अतिरेक महसूस करें (जैसे लंबे समय तक सोशल मीडिया स्क्रॉल करना या शॉपिंग करना), तो उस इच्छा का अवलोकन करें जो इसे प्रेरित कर रही है।
6. स्वास्थ्य (Health) में भोग वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
व्यसनों का अवलोकन
मोहन की कहानी: मोहन को शाम को एक-दो पेग शराब पीने की आदत है। वह कहते हैं, “इससे मेरा तनाव कम होता है।” एक दिन, उन्होंने इस आदत पर ध्यान दिया।
“मैं देख रहा हूँ कि मुझे शराब पीने की एक लत सी हो गई है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी भोग वृत्ति है – तनाव से पलायन करने की, आसान तसल्ली पाने की चाह।”
वह इस आदत के साक्षी बने, इसे नकारने के बजाय।
शारीरिक आकर्षण पर अत्यधिक ध्यान का साक्षित्व
तनुजा की कहानी: तनुजा अपने रूप-रंग पर बहुत ध्यान देती हैं। वह घंटों जिम में बिताती हैं और महंगे ब्यूटी ट्रीटमेंट करवाती हैं। एक दिन, उन्होंने इस पैटर्न पर विचार किया।
“मैं देख रही हूँ कि मुझे अपने शारीरिक सौंदर्य के प्रति एक प्रकार का लगाव है,” उन्होंने महसूस किया। “यह मेरी भोग वृत्ति है – आकर्षक दिखने की, दूसरों से प्रशंसा पाने की चाह।”
वह इस प्रवृत्ति की साक्षी बनीं, इसे अच्छा या बुरा कहे बिना।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे स्वास्थ्य संबंधी निर्णयों और आदतों को देखता है, उनसे अपनी पहचान बनाए बिना। जैसे कोई अपने शरीर के रोग का चिकित्सक होता है पर रोग से प्रभावित नहीं होता, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारी स्वास्थ्य संबंधी आदतों को देखता है।
योग गुरु की कहानी:
विजय गुरुजी एक प्रसिद्ध योग शिक्षक थे। एक दिन एक शिष्य ने उनसे पूछा, “गुरुजी, आप हमेशा इतने स्वस्थ और संतुलित कैसे रहते हैं? क्या आपको कभी कुछ खाने-पीने की या किसी व्यसन की इच्छा नहीं होती?”
गुरुजी हंसे और बोले, “बेटा, मुझे भी हर तरह की इच्छाएँ होती हैं। कभी मीठा खाने की, कभी आलस्य करने की, कभी अधिक खाने की। ये सभी भोग वृत्ति के अंश हैं।”
“पर मैंने इन इच्छाओं का साक्षी बनना सीखा है। जब मीठा खाने की इच्छा होती है, मैं उसे देखता हूँ, उसका स्वागत करता हूँ, और फिर उसे जाने देता हूँ। मैं उससे लड़ता नहीं, न ही उसमें खो जाता हूँ। मैं साक्षी बनता हूँ।”
शिष्य ने पूछा, “लेकिन आप जो खाते-पीते हैं, वह तो बहुत नियंत्रित और संतुलित होता है?”
गुरुजी ने कहा, “हाँ, क्योंकि जब आप इच्छाओं के साक्षी बनते हैं, तो अपने आप एक प्राकृतिक संतुलन आ जाता है। मैं अपने शरीर को सुनता हूँ, न कि सिर्फ अपनी इच्छाओं को। मैं जो खाता-पीता हूँ, वह प्रेम से खाता हूँ, भय या अपराधबोध से नहीं।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- स्वास्थ्य आदत अवलोकन: अपनी दैनिक आदतों पर नजर डालें – खाने-पीने से लेकर नींद और व्यायाम तक। किन आदतों में भोग वृत्ति अधिक दिखती है? बिना निर्णय के, सिर्फ देखें।
- इच्छा साक्षित्व: जब भी आपको कुछ खाने-पीने या किसी आदत की तीव्र इच्छा हो, एक क्षण रुकें और उस इच्छा का अवलोकन करें। उसे ‘बुरा’ मानने के बजाय, उसकी प्रकृति को समझें।
- शरीर सुनना: हर दिन कुछ मिनट अपने शरीर को सुनने में बिताएँ। शरीर क्या चाहता है? वास्तविक भूख और नकली भूख (जो आदत या भावनाओं से प्रेरित है) के बीच अंतर पहचानें।
भोग वृत्ति की जागरूकता और उससे ऊपर उठना
हमारी भोग वृत्ति – सुख, आनंद, तृप्ति, विलासिता की चाह – हमारी मानवीय प्रकृति का हिस्सा है। इसे बुरा मानना या इससे लड़ना समाधान नहीं है। वास्तविक समाधान है अनुभवकर्ता बनना – इस वृत्ति का साक्षी, दृष्टा बनना।
गुरुदेव के उपदेश:
एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु अक्सर अपने शिष्यों से कहते थे, “भोग वृत्ति न तो अच्छी है, न बुरी – यह सिर्फ है। इससे लड़ो मत, इसे दबाओ मत, इसे अस्वीकार मत करो। बस इसके साक्षी बनो।”
एक बार एक शिष्य ने पूछा, “गुरुदेव, पर यदि मैं इन इच्छाओं का साक्षी बनूँ और फिर भी इनका पालन करूँ, तो क्या यह गलत नहीं होगा?”
गुरुदेव मुस्कुराए, “जब तुम वास्तव में साक्षी बन जाते हो, तो तुम इच्छाओं का ‘पालन’ नहीं करते। तुम सचेत निर्णय लेते हो। कभी तुम इच्छा को पूरा करने का निर्णय ले सकते हो, कभी नहीं। लेकिन यह निर्णय अंधी आसक्ति से नहीं, बल्कि जागरूकता से आता है।”
शिष्य ने पूछा, “फिर भी, क्या भोग वृत्ति आध्यात्मिक प्रगति में बाधा नहीं है?”
गुरुदेव ने कहा, “जब तक तुम भोग वृत्ति के साथ तादात्म्य रखते हो, तब तक यह बाधा है। जब तुम इसके साक्षी बन जाते हो, तब यह सीढ़ी बन जाती है। क्योंकि इसे देखकर, तुम स्वयं को इससे परे जानते हो।”
by Ajay Shukla | Apr 24, 2025 | Sanatan Soul
पशु वृत्ति को साक्षी भाव से समझना: अनुभवकर्ता की दृष्टि
हम सभी के भीतर विभिन्न प्रकार की वृत्तियाँ होती हैं। कुछ वृत्तियाँ हमें ऊपर की ओर ले जाती हैं, और कुछ हमें नीचे खींचती हैं। इस लेख में, हम ‘पशु वृत्ति’ को समझेंगे – वे आदिम प्रवृत्तियाँ जो हमारे मन में जन्मजात रूप से मौजूद हैं।
परंतु, हम इन्हें समझेंगे ‘अनुभवकर्ता’ के दृष्टिकोण से। अनुभवकर्ता को हम कई नामों से जानते हैं – दृष्टा, साक्षी, चैतन्य, आत्मन। यह वह है जो हमारे भीतर देखता है, अनुभव करता है, पर किसी भी वृत्ति से प्रभावित नहीं होता।
ज्ञान मार्ग की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपनी वृत्तियों को ‘नियंत्रित’ करने की कोशिश नहीं करते, बल्कि उन्हें ‘देखते’ हैं, ‘साक्षी’ बनते हैं, और उनका ‘अवलोकन’ करते हैं। आइए पशु वृत्ति के विभिन्न पहलुओं को साक्षी भाव से समझें।
1. व्यवहार (Behavior) में पशु वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
सरलता और आज्ञाकारिता का अवलोकन
राकेश की कहानी: राकेश एक 45 वर्षीय बैंक कर्मचारी हैं। वे अपने मैनेजर की हर बात मानते हैं, कभी सवाल नहीं उठाते। एक दिन, उनके एक पुराने मित्र ने उनसे कहा, “तुम हमेशा हर चीज़ मान लेते हो, अपनी राय कभी नहीं रखते।”
राकेश ने कहा, “हाँ, मैं देख रहा हूँ कि मेरे व्यवहार में एक सरलता और आज्ञाकारिता है। यह अच्छा भी है, पर कभी-कभी यह मेरे लिए हानिकारक भी होता है।”
इसी तरह, हम सभी अपने भीतर देख सकते हैं कि कैसे हम कभी-कभी बिना सोचे-समझे दूसरों की बात मान लेते हैं। साक्षी बनकर, हम इस वृत्ति को देखते हैं, बिना आलोचना के।
आक्रामकता और रक्षात्मकता का साक्षित्व
अनिता की कहानी: अनिता एक कॉल सेंटर में काम करती हैं। एक दिन, एक ग्राहक ने उन पर चिल्लाना शुरू किया। अनिता का पहला प्रतिक्रिया था ग्राहक पर वापस चिल्लाना। लेकिन अचानक, उन्होंने अपने भीतर इस आवेग को देखा।
“मुझे अभी गुस्सा आ रहा है,” उन्होंने अपने आप से कहा। “मेरे शरीर में गर्मी महसूस हो रही है, मेरे हाथ कंप रहे हैं। यह मेरी पशु वृत्ति है – रक्षा या आक्रमण की प्रवृत्ति।”
वह सिर्फ इस प्रवृत्ति की साक्षी बनीं, उसमें उलझीं नहीं। उन्होंने तीन गहरी साँसें लीं और शांति से जवाब दिया।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे व्यवहार को देखता है, उसे नियंत्रित नहीं करता। जैसे पेड़ पर बैठा पक्षी सड़क पर चलते लोगों को देखता है, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे भीतर के व्यवहार को देखता है।
मजदूर बाबा की कहानी:
मजदूर बाबा एक साधारण मजदूर थे, लेकिन उनकी समझदारी अद्भुत थी। एक दिन, एक युवक ने उनसे पूछा, “बाबा, आप इतने शांत कैसे रहते हैं, जबकि ठेकेदार आप पर चिल्लाता है और कम पैसे देता है?”
मजदूर बाबा मुस्कुराए, “बेटा, मैं देखता हूँ कि मेरे भीतर गुस्सा उठता है। मैं उसे आते-जाते देखता हूँ, जैसे आकाश में बादल आते-जाते हैं। मैं वह गुस्सा नहीं हूँ, मैं उसका दृष्टा हूँ। जब मैं इसे देखता हूँ, तो यह अपनी शक्ति खो देता है।”
युवक ने कहा, “लेकिन आप इसे नियंत्रित कैसे करते हैं?”
मजदूर बाबा ने जवाब दिया, “मैं नियंत्रित नहीं करता, मैं सिर्फ देखता हूँ। देखना ही सबसे बड़ी शक्ति है।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- साक्षी भाव अभ्यास: जब आप किसी स्थिति में प्रतिक्रिया करें, एक क्षण रुकें और कहें: “मैं देख रहा/रही हूँ कि मेरा व्यवहार कैसा है।” बस देखें, निर्णय न करें।
- शरीर का अवलोकन: अपने शरीर की प्रतिक्रियाओं पर ध्यान दें – क्या आपके हाथ कंप रहे हैं? हृदय तेजी से धड़क रहा है? ये संकेत हैं आपकी पशु वृत्ति के सक्रिय होने के।
- दृष्टा अभ्यास: दिन में कम से कम तीन बार खुद से कहें, “मैं मेरे व्यवहार का दृष्टा हूँ, मैं मेरा व्यवहार नहीं हूँ।”
2. वाणी (Speech) में पशु वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
पुरानी बातों का दोहराव देखना
सुनीता की कहानी: सुनीता हर दिन अपनी सहेलियों के साथ चाय पर मिलती हैं। एक दिन, उन्होंने ध्यान दिया कि वह हर दिन एक ही बातें दोहराती हैं – बच्चों की समस्याएँ, महंगाई, पड़ोसियों की गपशप।
“मैं देख रही हूँ कि मेरी वाणी में नयापन नहीं है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “मैं हमेशा वही पुरानी बातें दोहराती रहती हूँ।”
यह देखकर, वह न तो परेशान हुईं, न ही खुद को कोसा। वह बस इस पैटर्न की साक्षी बनीं।
हिंसक और अपमानजनक भाषा का अवलोकन
विशाल की कहानी: विशाल एक कार चालक हैं। ट्रैफिक में फंसने पर वह अक्सर गालियां देते हैं। एक दिन उन्होंने अपनी इस आदत को देखा।
“मैं देख रहा हूँ कि जब मैं गुस्सा होता हूँ, तो मेरी वाणी में हिंसा आ जाती है,” उन्होंने महसूस किया। “मैं ऐसे शब्द बोलता हूँ जो दूसरों को और मुझे भी नुकसान पहुंचाते हैं।”
वह इस पैटर्न के साक्षी बने, इससे उलझे नहीं।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारी वाणी को सुनता है, बिना निर्णय लिए। जैसे पहाड़ी पर बैठा कोई व्यक्ति घाटी से आती आवाजें सुनता है, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे शब्दों को सुनता है।
फल विक्रेता की कहानी:
मुंबई के एक बाजार में रमीज़ा नाम की एक फल विक्रेता थी। वह बहुत कम बोलती थी, पर उसकी बात में प्रभाव था। एक दिन एक ग्राहक ने उससे पूछा, “आप इतना कम क्यों बोलती हैं?”
रमीज़ा ने मुस्कुराकर कहा, “मैं अपने शब्दों को सुनती हूँ, इससे पहले कि दूसरे सुनें। जब मैं सुनती हूँ, तो अक्सर पाती हूँ कि बोलने की जरूरत ही नहीं है।”
ग्राहक ने पूछा, “लेकिन जब दूसरे आप पर चिल्लाते हैं या आपका सामान लेकर मोल-भाव करते हैं, तब भी आप शांत कैसे रहती हैं?”
रमीज़ा ने कहा, “मैं अपने भीतर उठने वाले गुस्से को सुनती हूँ, जो जवाब देना चाहता है। मैं उसे सुनती हूँ, फिर उसे जाने देती हूँ। मैं वह गुस्सा नहीं हूँ, मैं उसकी श्रोता हूँ।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- वाणी का अवलोकन: एक दिन के लिए, हर बार बोलने से पहले एक पल रुकें और सोचें: “क्या मैं कोई नई बात कह रहा/रही हूँ या पुरानी बातें दोहरा रहा/रही हूँ?”
- मौन का अभ्यास: हर दिन 10 मिनट का मौन रखें, जहां आप सिर्फ अपने विचारों और आवाज़ों को सुनें।
- प्रश्न पूछने का अभ्यास: बातचीत में, बोलने से ज्यादा सवाल पूछें और सुनें। यह आपकी वाणी में नयापन लाएगा।
3. विचार (Thoughts) में पशु वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
भय और चिंता के विचारों का साक्षित्व
महेश की कहानी: महेश एक छोटे व्यापार के मालिक हैं। हर रात, उनके मन में चिंताओं का तूफान उठता है – “क्या मेरा व्यापार चलेगा? पैसे कैसे आएंगे? परिवार का क्या होगा?”
एक दिन, एक दोस्त ने उन्हें ध्यान का अभ्यास सिखाया। महेश ने अपने विचारों को देखना शुरू किया। “मैं देख रहा हूँ कि मेरे मन में भय के विचार आ रहे हैं,” उन्होंने स्वयं से कहा। “ये विचार आ रहे हैं, लेकिन मैं इन विचारों से अलग हूँ।”
जैसे-जैसे वह अपने विचारों के साक्षी बने, उन्होंने देखा कि विचार अपनी शक्ति खोने लगे।
सीमित और आदतन सोच का अवलोकन
पूजा की कहानी: पूजा एक गृहिणी हैं। उन्होंने एक दिन देखा कि उनके विचार अधिकतर घर, खाना, और परिवार तक ही सीमित हैं।
“मैं देख रही हूँ कि मेरे विचार एक ही दायरे में घूमते हैं,” उन्होंने महसूस किया। “मैं अपने विचारों को विस्तृत कर सकती हूँ।”
वह अपने सीमित विचारों की साक्षी बनीं, और फिर धीरे-धीरे नए विचारों को आमंत्रित करने लगीं।
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे विचारों को देखता है, उनसे प्रभावित नहीं होता। जैसे आकाश बादलों को आते-जाते देखता है, वैसे ही अनुभवकर्ता विचारों को देखता है।
कबाड़ी वाले की कहानी:
शाहरुख एक कबाड़ी वाले के रूप में काम करता था। हर दिन वह शहर की गलियों में घूमता और पुराना सामान इकट्ठा करता। एक दिन एक कॉलेज प्रोफेसर ने उससे पूछा, “आप हमेशा इतने खुश कैसे रहते हैं, जबकि आपका काम इतना कठिन है?”
शाहरुख ने मुस्कुराकर कहा, “साहब, मैंने एक बात सीखी है। मेरे दिमाग में हजारों विचार आते हैं – कभी चिंता, कभी गुस्सा, कभी दुख। मैं इन सबको देखता हूँ, जैसे सड़क पर बिखरे कबाड़ को देखता हूँ। मैं जो चाहूँ उठा लेता हूँ, बाकी छोड़ देता हूँ। मैं अपने विचारों का मालिक नहीं, साक्षी हूँ।”
प्रोफेसर चकित रह गए। उन्होंने कहा, “आपने जीवन का गहरा दर्शन कबाड़ से सीखा है।”
शाहरुख ने कहा, “जिंदगी हर जगह सिखाती है, बस देखने वाली आँखें चाहिए।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- विचार डायरी: एक नोटबुक रखें और दिन में तीन बार 5 मिनट के लिए अपने विचारों को लिखें, बिना किसी निर्णय के।
- विचार-साक्षी अभ्यास: जब भी आप परेशान हों, कहें: “मेरे मन में यह विचार आ रहा है, और मैं इसे देख रहा/रही हूँ।”
- चिंतन समय: हर दिन 15 मिनट का समय निकालें जहाँ आप किसी नए विषय पर सोचें, अपने विचारों को विस्तृत करें।
4. संबंध (Relationships) में पशु वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
सुरक्षा और स्थिरता के लिए संबंधों का अवलोकन
अमित की कहानी: अमित एक आईटी कंपनी में काम करते हैं। वह अपने दोस्तों और परिवार से मजबूत संबंध रखते हैं। एक दिन, उन्होंने स्वयं से पूछा, “मैं इन संबंधों को क्यों महत्व देता हूँ?”
उन्होंने देखा कि वह अक्सर सुरक्षा, स्थिरता और सुख के लिए इन संबंधों पर निर्भर हैं। “मैं देख रहा हूँ कि मेरे संबंधों में एक प्रकार की निर्भरता है,” उन्होंने महसूस किया। “यह एक प्राकृतिक वृत्ति है, लेकिन मैं इससे अधिक हूँ।”
निर्भरता और स्वार्थ संबंधों का साक्षित्व
रेखा की कहानी: रेखा अपने जीजा के व्यापार में काम करती हैं। एक दिन उन्होंने देखा कि वह अपने जीजा की हर बात इसलिए मान लेती हैं क्योंकि उनकी नौकरी उन पर निर्भर है।
“मैं देख रही हूँ कि मेरे इस संबंध में एक प्रकार का स्वार्थ और भय है,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी पशु वृत्ति है – अस्तित्व और सुरक्षा के लिए समझौता करना।”
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे संबंधों को देखता है, उनमें उलझता नहीं। जैसे कोई नदी के दो किनारों को एक साथ देखता है, वैसे ही अनुभवकर्ता संबंधों के दोनों पक्षों को देखता है।
रिक्शा चालक की कहानी:
चंदन एक रिक्शा चालक थे। हर दिन वह अलग-अलग यात्रियों से मिलते, कुछ अच्छे, कुछ रूखे, कुछ उदार, कुछ कंजूस। एक दिन एक यात्री ने पूछा, “आप सभी के साथ इतना अच्छा व्यवहार कैसे करते हैं?”
चंदन ने कहा, “हर यात्री के साथ मेरा एक अलग संबंध है – कुछ के साथ अच्छा, कुछ के साथ चुनौतीपूर्ण। मैं इन सभी संबंधों को देखता हूँ, पर इनमें खो नहीं जाता। मैं जानता हूँ कि ये संबंध आते-जाते हैं, जैसे सड़क पर यात्री।”
यात्री ने कहा, “लेकिन कुछ लोग आपसे बुरा व्यवहार करते होंगे?”
चंदन ने मुस्कुराकर कहा, “हाँ, और मैं अपने भीतर उठने वाले बुरे भावों को भी देखता हूँ। मैं न तो उनके व्यवहार का गुलाम हूँ, न ही अपनी प्रतिक्रिया का। मैं दोनों का साक्षी हूँ।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- संबंध अवलोकन: अपने प्रमुख संबंधों के बारे में सोचें और स्वयं से पूछें: “मैं इस संबंध में क्या देख रहा/रही हूँ? क्या यह सुरक्षा, स्वार्थ, या सच्चे प्रेम पर आधारित है?”
- स्वतंत्र साक्षी: अपने किसी करीबी संबंध में, एक दिन बिना कुछ बदले या माँगे, सिर्फ देखें और अनुभव करें।
- संबंध दर्पण: हर संबंध को अपने भीतर झांकने का दर्पण मानें। जब कोई आपको गुस्सा दिलाए, देखें आपके भीतर क्या उभरता है।
5. मनोरंजन (Recreation) में पशु वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
पलायनवादी मनोरंजन का अवलोकन
राहुल की कहानी: राहुल दिनभर की थकान के बाद हर शाम टीवी पर क्राइम शो देखते हैं। एक दिन उन्होंने स्वयं से पूछा, “मैं इन हिंसक शो में क्या ढूंढ रहा हूँ?”
उन्होंने महसूस किया, “मैं देख रहा हूँ कि मेरे मनोरंजन में एक प्रकार का पलायन है। मैं अपनी वास्तविक भावनाओं और जीवन से भाग रहा हूँ।”
सरल और आसान मनोरंजन का साक्षित्व
निशा की कहानी: निशा अपने फोन पर घंटों सोशल मीडिया स्क्रॉल करती हैं। एक दिन उन्होंने इस आदत को देखा।
“मैं देख रही हूँ कि मैं ऐसे मनोरंजन को चुनती हूँ जो समझने में आसान है, जिसमें दिमाग लगाने की जरूरत नहीं,” उन्होंने स्वयं से कहा। “यह मेरी पशु वृत्ति है – कम प्रयास और तत्काल संतुष्टि की चाह।”
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे मनोरंजन के विकल्पों को देखता है, बिना निर्णय लिए। जैसे कोई संगीत सुनता है, बिना उसे अच्छा या बुरा कहे, वैसे ही अनुभवकर्ता हमारे मनोरंजन को देखता है।
सब्जी विक्रेता की कहानी:
मोहन एक सब्जी विक्रेता थे। हर शाम, अपनी दुकान बंद करने के बाद, वह पास के मंदिर में जाते और वहां के प्रांगण में बैठकर लोगों को देखते। एक दिन, एक नियमित ग्राहक ने उन्हें वहां देखा और पूछा, “मोहन भाई, आप यहां क्या करते हैं? कोई भजन-कीर्तन नहीं चल रहा?”
मोहन ने मुस्कुराकर कहा, “नहीं, मैं बस लोगों को देखता हूँ। कोई हंसता है, कोई रोता है, कोई प्रार्थना करता है, कोई सिर्फ आराम करता है। मैं अपने भीतर देखता हूँ कि मुझे कैसा लगता है। यह मेरा मनोरंजन है – देखना, अनुभव करना, बिना कुछ पाने या खोने की इच्छा के।”
ग्राहक ने कहा, “लेकिन टीवी देखना, फिल्में देखना ज्यादा मजेदार नहीं होगा?”
मोहन ने कहा, “वह भी अच्छा है। लेकिन वहां मैं सिर्फ देखता हूँ, यहां मैं अपने देखने को भी देखता हूँ। अपने अनुभव का अनुभव करता हूँ। यह अलग तरह का आनंद है।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- मनोरंजन लॉग: एक सप्ताह तक अपने सभी मनोरंजन गतिविधियों को लिखें और देखें कि आप किस प्रकार का मनोरंजन पसंद करते हैं।
- विविधता अभ्यास: अपने मनोरंजन में विविधता लाएँ – कुछ सक्रिय, कुछ शांत, कुछ सोचने वाला, कुछ आनंददायक। फिर देखें आप किसमें ज्यादा खिंचे चले जाते हैं।
- साक्षी मनोरंजन: अगली बार जब आप टीवी देखें या फोन चलाएँ, अपने आप से पूछें: “मैं इस गतिविधि में क्या ढूंढ रहा/रही हूँ? मैं कैसा महसूस कर रहा/रही हूँ?”
6. स्वास्थ्य (Health) में पशु वृत्ति का अवलोकन
दर्शनीय वृत्तियाँ:
सामान्य स्वास्थ्य प्रति उदासीनता का अवलोकन
रमेश की कहानी: रमेश 45 वर्ष के हैं और एक ऑफिस में काम करते हैं। उनका स्वास्थ्य न बहुत अच्छा है, न बहुत खराब। वह कहते हैं, “मेरा स्वास्थ्य सामान्य है, मैं ठीक हूँ।”
एक दिन उनके डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उनका ब्लड प्रेशर बढ़ रहा है। रमेश ने स्वयं से कहा, “मैं देख रहा हूँ कि मैंने अपने स्वास्थ्य के प्रति एक प्रकार की उदासीनता विकसित कर ली है। मैं तब तक ध्यान नहीं देता जब तक कोई समस्या न हो।”
शक्ति प्रदर्शन से स्वास्थ्य को देखना
विक्रम की कहानी: विक्रम एक युवा पहलवान हैं। वह अपने शरीर और शक्ति पर बहुत गर्व करते हैं। एक दिन प्रशिक्षण के दौरान उन्हें चोट लग गई।
ठीक होने के दौरान उन्होंने स्वयं से कहा, “मैं देख रहा हूँ कि मैं अपने स्वास्थ्य को सिर्फ शक्ति और प्रदर्शन के रूप में देखता हूँ। यह मेरी पशु वृत्ति है – शारीरिक श्रेष्ठता दिखाने की चाह।”
अनुभवकर्ता का दृष्टिकोण:
अनुभवकर्ता हमारे स्वास्थ्य की स्थिति को देखता है, उससे पहचान नहीं बनाता। जैसे कोई वाहन का रखरखाव करता है पर उससे खुद को अलग जानता है, वैसे ही अनुभवकर्ता शरीर को देखता है।
बागवान की कहानी:
रामू काका एक छोटे से गाँव में बागवानी करते थे। 70 साल की उम्र में भी वह बड़ी फुर्ती से काम करते थे। एक बार एक शहरी आगंतुक ने उनसे पूछा, “काका, आप इतनी उम्र में भी इतने स्वस्थ कैसे हैं?”
रामू काका हंसे और बोले, “देखो बेटा, मैं अपने शरीर को एक बगीचे की तरह देखता हूँ। मैं इसका अनुभव करता हूँ, इसकी देखभाल करता हूँ, पर मैं यह जानता हूँ कि मैं यह बगीचा नहीं हूँ। मैं इसका माली हूँ, इसका अनुभवकर्ता हूँ।”
आगंतुक ने पूछा, “लेकिन जब आप बीमार पड़ते हैं तब क्या करते हैं?”
रामू काका ने कहा, “जैसे बगीचे में कभी कीड़े लग जाते हैं या सूखा पड़ जाता है, वैसे ही शरीर में भी बीमारी आती है। मैं इसका भी अनुभव करता हूँ, इलाज करता हूँ, पर इससे घबराता नहीं। मैं बीमारी का भी दृष्टा हूँ, स्वास्थ्य का भी।”
दैनिक जीवन के लिए सुझाव:
- शारीरिक अनुभव: हर दिन 5 मिनट के लिए आँखें बंद करके अपने शरीर को महसूस करें – साँस की आवाज, दिल की धड़कन, पेट में हलचल। सिर्फ अनुभव करें, निर्णय न करें।
- स्वास्थ्य डायरी: अपने स्वास्थ्य में होने वाले परिवर्तनों को बिना भय या चिंता के नोट करें। शरीर के संकेतों के साक्षी बनें।
- संतुलित दृष्टिकोण: अपने स्वास्थ्य को न तो अत्यधिक महत्व दें, न ही उपेक्षा करें। एक साक्षी की तरह देखें – “यह मेरा शरीर है, मैं इसकी देखभाल करता/करती हूँ, पर मैं यह नहीं हूँ।”
पशु वृत्ति की पहचान और उससे ऊपर उठना
हमारे भीतर की पशु वृत्ति स्वाभाविक है, और इसे अस्वीकार करने या इससे लड़ने की आवश्यकता नहीं है। अनुभवकर्ता के रूप में, हम इसे देखते हैं, समझते हैं, और धीरे-धीरे इससे ऊपर उठते हैं।
सब्जी मंडी के प्रसंग:
एक बार एक व्यक्ति सब्जी मंडी में गया। उसने देखा कि वहां सब्जियों की कई अलग-अलग किस्में थीं – कुछ ताजी, कुछ थोड़ी पुरानी, कुछ बहुत महंगी, कुछ सस्ती।
वह सबसे अच्छी सब्जियां चुनने में व्यस्त था, जब उसने एक बुजुर्ग को देखा जो बस खड़े थे और मंडी का नजारा देख रहे थे। व्यक्ति ने पूछा, “बाबा, आप सब्जियां नहीं खरीद रहे?”
बुजुर्ग ने मुस्कुराकर कहा, “बेटा, पहले मैं अपने भीतर देख रहा हूँ कि मेरी क्या जरूरत है, फिर मैं सब्जियों को देखूंगा। अक्सर हमारी पशु वृत्ति हमें सबसे अच्छा, सबसे ज्यादा, सबसे बेहतर चुनने के लिए प्रेरित करती है, जबकि हमारी वास्तविक जरूरत बहुत कम होती है।”
व्यक्ति ने कहा, “लेकिन मैं तो अच्छी चीजें लेना चाहता हूँ, इसमें गलत क्या है?”
बुजुर्ग ने कहा, “कुछ भी गलत नहीं है। बस अपने भीतर के उस हिस्से को देखो जो चुनाव कर रहा है, जो तुलना कर रहा है, जो ज्यादा पाना चाहता है। इसे देखो, इसके साथ लड़ो मत। देखने से ही समझ आएगी।”
पशु वृत्ति के साक्षी बनने के दैनिक अभ्यास:
- प्रातः जागरूकता: सुबह उठते ही 5 मिनट शांति से बैठें और कहें, “आज मैं अपनी सभी वृत्तियों का साक्षी बनूंगा/बनूंगी, बिना निर्णय के, बिना प्रतिक्रिया के।”
- दैनिक ट्रिगर नोट: दिन भर में जो भी स्थितियां आपको परेशान करें या उत्तेजित करें, उन्हें एक छोटी नोटबुक में लिखें। शाम को देखें और पहचानें कि कौन सी पशु वृत्ति (भय, क्रोध, लालच, आलस्य) सक्रिय हुई थी।
- शरीर अनुभव: जब भी आप तनाव, क्रोध या भय महसूस करें, अपने शरीर में होने वाले परिवर्तनों को देखें – हृदय गति, श्वास, मांसपेशियों में तनाव। ये पशु वृत्ति के सक्रिय होने के संकेत हैं।
- मौन अवलोकन: हर दिन 15-20 मिनट का समय निकालें जहां आप सिर्फ बैठें और अपने विचारों, भावनाओं और शारीरिक संवेदनाओं का अवलोकन करें।
- साक्षी प्रश्न: दिन में कई बार स्वयं से पूछें:
- “मैं इस क्षण क्या अनुभव कर रहा/रही हूँ?”
- “मैं इस अनुभव का साक्षी कैसे बन सकता/सकती हूँ?”
- “मेरी कौन सी पशु वृत्ति इस समय सक्रिय है?”
जीवन में पशु वृत्ति के व्यावहारिक उदाहरण
1. ऑफिस में दिखाई देने वाली पशु वृत्ति
सुमित का प्रसंग: सुमित एक कॉरपोरेट कंपनी में काम करते हैं। एक दिन, उनके सहकर्मी को उनके बजाय प्रमोशन मिल गया। सुमित के भीतर ईर्ष्या और क्रोध उभरा।
अनुभवकर्ता के रूप में, सुमित ने इन भावनाओं को देखा। “मैं देख रहा हूँ कि मुझे ईर्ष्या हो रही है। यह मेरी पशु वृत्ति है – प्रतिस्पर्धा और तुलना की प्रवृत्ति।” उन्होंने इस भावना से लड़ने के बजाय उसे देखा, समझा, और धीरे-धीरे वह शांत हो गई।
2. परिवार में दिखाई देने वाली पशु वृत्ति
गीता का प्रसंग: गीता अपने बेटे को बहुत प्यार करती हैं। जब उसने बताया कि वह शादी के बाद दूसरे शहर में रहना चाहता है, गीता भावुक हो गईं और रोने लगीं।
अनुभवकर्ता के रूप में, गीता ने अपनी इस प्रतिक्रिया को देखा। “मैं देख रही हूँ कि मुझे अपने बेटे से बिछड़ने का डर है। यह मेरी पशु वृत्ति है – अपने बच्चे को अपने पास रखने की प्राकृतिक प्रवृत्ति।” इस समझ से, वह अपने डर से ऊपर उठ सकीं और बेटे के निर्णय का सम्मान कर सकीं।
3. सामाजिक परिस्थितियों में दिखाई देने वाली पशु वृत्ति
मनोज का प्रसंग: मनोज को एक पार्टी में आमंत्रित किया गया जहां उन्हें कोई नहीं जानता था। उन्होंने सोचा, “मैं नहीं जाऊंगा, वहां अजनबियों के बीच असहज लगेगा।”
अनुभवकर्ता के रूप में, मनोज ने इस विचार को देखा। “मैं देख रहा हूँ कि मुझे अपरिचित लोगों से डर लग रहा है। यह मेरी पशु वृत्ति है – अपने समूह के बाहर जाने से डरना।” इस जागरूकता से, उन्होंने पार्टी में जाने का निर्णय लिया और अंततः नए दोस्त बनाए।
अनुभवकर्ता की दृष्टि से पशु वृत्ति को समझने का महत्व
गुरुजी के उपदेश:
एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु अक्सर अपने शिष्यों से कहते थे, “पशु वृत्ति को दबाओ मत, उससे लड़ो मत, उसे दूर करने की कोशिश मत करो। बस उसे देखो, उसके साक्षी बनो।”
एक बार एक शिष्य ने पूछा, “गुरुजी, सिर्फ देखने से क्या होगा? मुझे तो अपनी पशु वृत्ति को मिटाना है।”
गुरुजी मुस्कुराए, “क्या तुमने कभी अंधेरे कमरे में प्रकाश जलाया है? क्या तुम्हें अंधेरे को हटाना पड़ा या सिर्फ प्रकाश जलाना पड़ा?”
शिष्य ने कहा, “सिर्फ प्रकाश जलाना पड़ा। अंधेरा अपने आप हट गया।”
गुरुजी ने कहा, “ठीक वैसे ही, अनुभवकर्ता की दृष्टि का प्रकाश जब पशु वृत्ति पर पड़ता है, तो वह अपने आप कमजोर पड़ने लगती है। तुम्हें उससे लड़ना नहीं, बस उसे देखते रहना है।”
क्रमिक परिवर्तन की कहानी
मीरा की यात्रा:
मीरा एक साधारण गृहिणी थीं। वह अपने परिवार की देखभाल करतीं, घर के काम करतीं, और अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीतीं। उनके भीतर भी पशु वृत्तियां थीं – कभी गुस्सा, कभी भय, कभी चिंता, कभी आलस्य।
एक दिन, उन्होंने अपने पड़ोस में रहने वाली एक बुजुर्ग महिला शांति देवी से बातचीत की। शांति देवी ने उन्हें साक्षी भाव की बात समझाई:
“देखो मीरा, हम सब के भीतर पशु वृत्तियां हैं, यह स्वाभाविक है। लेकिन हम इनसे अधिक हैं, हम इनके द्रष्टा हैं, अनुभवकर्ता हैं।”
मीरा ने साक्षी भाव का अभ्यास शुरू किया। जब भी वह गुस्सा होतीं, कहतीं, “मैं देख रही हूँ कि मुझे गुस्सा आ रहा है।” जब कभी भय महसूस होता, कहतीं, “मैं देख रही हूँ कि मुझे डर लग रहा है।”
धीरे-धीरे, वह अपनी भावनाओं और वृत्तियों से पहचान बनाना छोड़ दीं। वह उनसे अलग, उनकी साक्षी बन गईं।
छह महीने बाद, मीरा बदल गई थीं। वह पहले की तरह गुस्सा या चिंता करती थीं, लेकिन अब उनका प्रभाव कम हो गया था। एक दिन शांति देवी ने पूछा, “मीरा, तुम इतनी शांत कैसे हो गई हो?”
मीरा ने मुस्कुराकर कहा, “क्योंकि अब मैं अपने भीतर की पशु वृत्ति को देखती हूँ, उससे लड़ती नहीं। मैं उसकी साक्षी हूँ, और जब मैं साक्षी बनती हूँ, तो मैं वह वृत्ति नहीं रह जाती।”
शांति देवी ने कहा, “यही तो ज्ञान मार्ग का सार है – देखना, साक्षी बनना, अनुभवकर्ता होना।”
निष्कर्ष: पशु वृत्ति से ऊपर उठने का मार्ग
हमारी पशु वृत्तियां – भय, क्रोध, लालच, आलस्य, सुरक्षा की चाह, स्वाद की तृष्णा – ये सभी हमारे अस्तित्व का हिस्सा हैं। इनसे लड़ना या इन्हें दबाना समाधान नहीं है।
वास्तविक समाधान है अनुभवकर्ता बनना – इन वृत्तियों का साक्षी, दृष्टा बनना। जब हम देखते हैं, तो हम जागरूक होते हैं। जब हम जागरूक होते हैं, तो हम स्वतंत्र होते हैं।
याद रखें, आप सिर्फ अपनी वृत्तियां नहीं हैं, आप उनके अनुभवकर्ता हैं। आप सिर्फ शरीर, मन, विचार या भावनाएँ नहीं हैं, आप वह हैं जो इन सबको देखता है – शुद्ध चेतना, आत्मन, साक्षी।
जीवन में हर स्थिति में, अपने आप से पूछें:
- “मैं इस क्षण क्या अनुभव कर रहा/रही हूँ?”
- “कौन है जो इस अनुभव को देख रहा है?”
इस साक्षी भाव से जीते हुए, आप धीरे-धीरे अपनी पशु वृत्ति से ऊपर उठ जाएंगे और अपने सच्चे स्वरूप – शांत, प्रेममय, अनंत चेतना – का अनुभव करेंगे।
by Ajay Shukla | Apr 24, 2025 | Sanatan Soul
हम सभी अपने जीवन में उन्नति चाहते हैं। बाहरी दुनिया में हम पढ़ाई, नौकरी और व्यापार से आगे बढ़ते हैं, लेकिन आंतरिक उन्नति के लिए हमें अपनी वृत्तियों (स्वभाव और आदतों) को समझना होगा। ज्ञान मार्ग पर चलने का अर्थ है – देखना, समझना और जागरूक रहना। इस लेख में हम छः क्षेत्रों में धार्मिक (आध्यात्मिक विकास में सहायक) और अधार्मिक (आध्यात्मिक विकास में बाधक) वृत्तियों को सरल उदाहरणों के साथ समझेंगे।
याद रखें, हम इन वृत्तियों के “देखने वाले” या “साक्षी” हैं। जैसे सिनेमा हॉल में बैठकर हम फिल्म देखते हैं, वैसे ही हम अपने जीवन की इन वृत्तियों को देखते और अनुभव करते हैं। हम इन्हें देखने वाले हैं, जिसे अनुभवकर्ता, दृष्टा, साक्षी या चैतन्य भी कहते हैं।
1. व्यवहार (Behavior) – हम कैसे कार्य करते हैं
धार्मिक वृत्तियाँ (सहायक आदतें):
उदाहरण 1: साधना में तल्लीनता राजेश एक बैंक मैनेजर हैं। हर दिन सुबह 5 बजे उठकर वह एक घंटा ध्यान करते हैं। कार्यालय में भी वह थोड़ी-थोड़ी देर अपनी श्वास पर ध्यान देते रहते हैं। उनका बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है, बेटी डॉक्टर बनना चाहती है। राजेश अपने परिवार की आवश्यकताएँ पूरी करते हैं, लेकिन उनका मन हमेशा आध्यात्मिक उन्नति पर केंद्रित रहता है। वह अपने परिवार से कहते हैं, “मेरा लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, बाकी सब उसके लिए साधन मात्र हैं।”
उदाहरण 2: विवेकपूर्ण एकांत सुमन एक स्कूल शिक्षिका हैं। वह अपना काम पूरी लगन से करती हैं, लेकिन सोशल मीडिया और पार्टियों से दूर रहती हैं। उनकी सहेली प्रीति पूछती है, “तुम इन सबसे दूर क्यों रहती हो? क्या हम लोगों से नफरत करती हो?” सुमन मुस्कुराकर कहती हैं, “बिलकुल नहीं। मैं सभी को प्यार करती हूँ, लेकिन शोर-शराबे से मेरा मन विचलित होता है। एकांत में मुझे अपने भीतर का संगीत सुनाई देता है।”
उदाहरण 3: सरलता और न्यूनतावादी जीवन अमित एक सफल सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। वह अच्छी कमाई करते हैं, लेकिन उनके पास सिर्फ तीन जोड़ी कपड़े हैं, एक साधारण मोबाइल फोन और कोई वाहन नहीं। एक दिन उनके मित्र ने पूछा, “तुम इतना कमाते हो फिर भी इतनी सादगी से क्यों रहते हो?” अमित ने मुस्कुराकर कहा, “जितनी कम चीजें, उतनी कम चिंताएँ। मेरा मन हमेशा शांत और प्रसन्न रहता है।”
अधार्मिक वृत्तियाँ (बाधक आदतें):
उदाहरण 1: सांसारिक आसक्ति विनोद हर महीने नया स्मार्टफोन, नए कपड़े और नए गैजेट्स खरीदते हैं। वह अपनी नई खरीदारी के बारे में सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहते हैं। एक दिन उनके गुरु ने उन्हें बताया, “तुम ध्यान में गहरे नहीं जा पा रहे हो क्योंकि तुम्हारा मन हमेशा नई चीजों की चिंता में उलझा रहता है।” विनोद इस बात को समझ तो गए, लेकिन आदत बदल नहीं पाए।
उदाहरण 2: पक्षपात और विषमता मीना एक बड़े कार्यालय में मैनेजर हैं। वह अपने पसंदीदा कर्मचारियों को आसान काम और अतिरिक्त छुट्टियाँ देती हैं, जबकि अन्य कर्मचारियों से कठोर व्यवहार करती हैं। मीना साथ ही आध्यात्मिक संगोष्ठियों में भी जाती हैं, लेकिन जब एक साधु ने उन्हें बताया कि “सबके प्रति समान व्यवहार ही आध्यात्मिकता की नींव है,” तब भी उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया।
उदाहरण 3: अहंकार-प्रेरित व्यवहार सुरेश 10 सालों से योग और ध्यान कर रहे हैं। जब भी कोई उनसे मिलता है, वह कहते हैं, “मैं रोज 2 घंटे ध्यान करता हूँ, तुम कितना करते हो?” वह हर बातचीत में अपनी आध्यात्मिक प्रगति और अनुभवों का उल्लेख करते हैं। उनके एक मित्र ने टिप्पणी की, “सुरेश को अपनी साधना का इतना अहंकार है कि वह वास्तविक आध्यात्मिकता से दूर होते जा रहे हैं।”
2. वाणी (Speech) – हम कैसे बोलते हैं
धार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: मधुर और शांत वाणी करण एक बिजनेस मीटिंग में थे। एक सहकर्मी ने गलत आंकड़े प्रस्तुत किए और सभी उस पर चिल्लाने लगे। करण ने शांति से उठकर धीमी और मधुर आवाज में कहा, “शायद हम पहले आंकड़ों को दोबारा जांच लें, फिर निर्णय लें।” उनकी शांत वाणी ने पूरे माहौल को शांत कर दिया।
उदाहरण 2: सत्य का अभ्यास रीना के बेटे ने स्कूल में शरारत की थी। जब प्रिंसिपल ने पूछा, रीना कह सकती थीं, “मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता,” लेकिन उन्होंने सच बोला: “हाँ, वह गलती कर सकता है। मैं उससे बात करूँगी और सुनिश्चित करूँगी कि यह दोबारा न हो।” घर आकर उनके बेटे ने पूछा, “आपने मेरा बचाव क्यों नहीं किया?” रीना ने समझाया, “सत्य बोलना सबसे बड़ा धर्म है, बेटा। झूठ से हम अपने आप को धोखा देते हैं।”
उदाहरण 3: मौन का महत्व अनिल एक आईटी कंपनी में काम करते हैं। ऑफिस में सभी लोग लंच के समय गपशप करते और दूसरों की बुराई करते हैं। अनिल शांति से अपना खाना खाते हैं और केवल जरूरी बातें ही करते हैं। एक दिन एक सहकर्मी ने पूछा, “तुम इतने चुप क्यों रहते हो?” अनिल ने मुस्कुराकर कहा, “जो समय बातों में जाता है, वह मेरे अंदर की आवाज सुनने में जा सकता है।”
अधार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: अनावश्यक वार्तालाप सविता हर किसी की बात काटती हैं और बिना रुके बोलती रहती हैं। एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सत्संग में भी, गुरुजी के बोलने के बीच वह अपनी बात रखने लगीं। बाद में उनकी मित्र ने कहा, “तुम्हें पता भी है कि आज गुरुजी ने क्या महत्वपूर्ण ज्ञान दिया?” सविता उत्तर नहीं दे पाईं क्योंकि वह अपनी बातों में इतनी उलझी थीं कि सुन ही नहीं पाईं।
उदाहरण 2: कठोर वाणी राहुल एक अच्छे ध्यानी हैं, लेकिन जब कोई छोटी गलती होती है, तो वह अपने परिवार पर चिल्लाते हैं। एक दिन उनकी पत्नी ने पूछा, “आप इतना ध्यान करते हैं, फिर भी इतना गुस्सा क्यों करते हैं?” राहुल को अहसास हुआ कि उनकी कठोर वाणी उनकी आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है।
उदाहरण 3: निंदा और आलोचना मनोज और उनके दोस्त हर शाम चाय की दुकान पर मिलते हैं और अपने गुरु, साथी साधकों और अन्य लोगों की निंदा करते हैं। एक दिन एक बुजुर्ग साधु वहां से गुजरे और उन्होंने मनोज से पूछा, “बेटा, क्या तुम जानते हो, जब तुम किसी की निंदा करते हो, तो वह पाप तुम्हें और वह पुण्य उसे मिलता है?” मनोज को अपनी गलती का अहसास हुआ।
3. विचार (Thoughts) – हम कैसे सोचते हैं
धार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: चेतना में निवास अंजलि एक व्यस्त डॉक्टर हैं। मरीजों की भीड़, फोन कॉल, और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच, वह एक खास क्षमता विकसित कर चुकी हैं। वह हर स्थिति को देखती हैं, लेकिन उसमें खोती नहीं हैं। जैसे कोई आकाश से बादलों को देखता है, वैसे ही वह अपने विचारों को देखती रहती हैं। एक दिन उनकी सहकर्मी ने पूछा, “इतने तनाव में भी आप इतनी शांत कैसे रहती हैं?” अंजलि ने मुस्कुराकर कहा, “मैं विचारों की नहीं, विचारों को देखने वाली चेतना हूँ।”
उदाहरण 2: आवश्यकतानुसार विचार मोहन एक वकील हैं। कोर्ट में तर्क-वितर्क करते समय वह अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग करते हैं। लेकिन काम खत्म होते ही, वह सभी विचारों को एक तरफ रख देते हैं – बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई कलम को मेज पर रख दे। घर पर, बगीचे में बैठकर, वह सिर्फ फूलों को देखते हैं, पक्षियों की आवाज सुनते हैं – बिना किसी विचार के। उनके मित्र ने पूछा, “तुम इतनी आसानी से विचारों को रोक कैसे लेते हो?” मोहन ने कहा, “मैं रोकता नहीं, बस देखता हूँ। जैसे आकाश बादलों को आने-जाने देता है, वैसे ही मैं विचारों को।”
उदाहरण 3: समभाव नीता के व्यापार में अचानक बड़ा नुकसान हुआ। उनके कुछ मित्र बहुत परेशान हुए, कुछ ने सलाह दी, कुछ ने आलोचना की। नीता शांत बैठी सब देख रही थीं। उनकी बेटी ने पूछा, “माँ, आप इतने बड़े नुकसान पर भी इतनी शांत कैसे हैं?” नीता ने कहा, “बेटा, जीवन लाभ और हानि दोनों से भरा है। अगर मैं लाभ पर खुश होती हूँ और हानि पर दुखी, तो मेरी शांति हमेशा दूसरों के हाथ में रहेगी। मैं सब स्थितियों में एक जैसी रहना चाहती हूँ।”
अधार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: विचारों में उलझाव रमेश हर रात बिस्तर पर लेटकर अगले दिन के काम, बच्चों की पढ़ाई, पैसों की समस्या, और पुराने विवादों के बारे में सोचते रहते हैं। कभी भविष्य की चिंता, कभी अतीत का पछतावा। एक रात उनकी पत्नी ने देखा कि वह करवटें बदल रहे हैं। पूछने पर रमेश ने कहा, “मैं सोच रहा था कि 10 साल पहले अगर वह प्रमोशन मिला होता तो आज हमारी स्थिति कैसी होती।” उनकी पत्नी ने कहा, “10 साल पुरानी बात को सोचकर आज की नींद क्यों खराब कर रहे हो?”
उदाहरण 2: द्वैत में जीना सीमा हर चीज को “अच्छा-बुरा” के चश्मे से देखती हैं। एक दिन उनका बेटा स्कूल से आया और बताया कि उसे दूसरा स्थान मिला है। सीमा नाराज हो गईं, “पहला क्यों नहीं? तुमने पूरी मेहनत नहीं की!” जब गुरुजी के प्रवचन में गए, तो उन्होंने कहा, “आज का प्रवचन अच्छा था, कल वाला ज्यादा अच्छा था, परसों वाला बेकार था।” उनकी मित्र ने कहा, “सीमा, तुम हर चीज को अच्छा-बुरा में बांटकर खुद ही दुखी हो जाती हो।”
उदाहरण 3: अहं-केंद्रित सोच विवेक एक अच्छे योग शिक्षक हैं, लेकिन उनके विचारों में हमेशा “मैं” और “मेरा” होता है। “मेरी क्लास,” “मेरे छात्र,” “मेरी तकनीक,” “मेरी प्रसिद्धि।” एक बार उनके गुरु ने कहा, “विवेक, जब तक तुम्हारे विचारों में ‘मैं’ है, तब तक तुम सच्चे ‘स्व’ को नहीं जान पाओगे। ‘मैं’ का अर्थ है ‘अहंकार’ जो आत्मा का आवरण है।”
4. संबंध (Relationships) – हम दूसरों से कैसे जुड़ते हैं
धार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: आंतरिक वैराग्य प्रकाश एक सफल बिजनेसमैन हैं। उनका परिवार, व्यापार और सामाजिक दायित्व सब कुछ है, लेकिन अंदर से वे इन सबसे अनासक्त हैं। जब उनके बेटे ने पूछा, “पिताजी, आप हमसे प्यार नहीं करते?” प्रकाश ने प्यार से समझाया, “बेटा, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और हर संभव तरीके से तुम्हारी देखभाल करता हूँ। लेकिन मेरा प्यार बंधन नहीं है। मैं तुम्हें अपनी संपत्ति नहीं मानता, तुम्हारी अपनी जिंदगी है। मैं वहां हूँ जब तुम्हें जरूरत हो, लेकिन मानसिक रूप से मैं स्वतंत्र हूँ, और तुम्हें भी स्वतंत्र रहने देता हूँ।”
उदाहरण 2: गुरु-शिष्य संबंध मीरा एक प्रोफेसर हैं। वह अपने गुरु को अपने जीवन का केंद्र मानती हैं। जब उनके मित्र ने पूछा, “तुम इतनी शिक्षित होकर भी अपने गुरु की हर बात क्यों मानती हो?” मीरा ने कहा, “मेरी शिक्षा ने मुझे इतना ही सिखाया है कि मैं जितना जानती हूँ, वह सागर में एक बूंद के समान है। मेरे गुरु मुझे उस अनंत सागर से जोड़ते हैं। मेरा उनसे सम्बंध ही मेरा सबसे कीमती संबंध है।”
उदाहरण 3: समदृष्टि अरुण एक बैंक के सुरक्षा गार्ड हैं। बैंक के मैनेजर से लेकर सफाई कर्मचारी तक, वह सभी से एक जैसा व्यवहार करते हैं। एक दिन जब बैंक के मालिक आए, तब भी अरुण ने उन्हें वैसे ही नमस्ते की जैसे वह हर रोज सबको करते हैं। मालिक ने इसे नोटिस किया और पूछा, “आप सबको एक जैसा सम्मान कैसे दे पाते हैं?” अरुण ने सहजता से कहा, “मेरे लिए सब एक जैसे हैं। सभी में वही चेतना है, केवल भूमिकाएँ अलग हैं।”
अधार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: सांसारिक आसक्ति रोहित अपने बेटे के प्रति इतने आसक्त हैं कि उसकी हर इच्छा पूरी करते हैं, यहाँ तक कि गलत चीजें भी। एक दिन उनके बेटे ने कहा, “पापा, मुझे एक नई बाइक चाहिए, वरना मैं कॉलेज नहीं जाऊंगा।” रोहित जानते थे कि उनका बेटा अभी बाइक चलाने के लिए बहुत कम उम्र का है, फिर भी उन्होंने बाइक खरीद दी। एक बुजुर्ग पड़ोसी ने कहा, “रोहित, यह प्यार नहीं, आसक्ति है। सच्चा प्यार वह है जो बच्चे के भविष्य के बारे में सोचता है, न कि वर्तमान की खुशी के लिए उसके भविष्य को खतरे में डालता है।”
उदाहरण 2: द्वेषपूर्ण पृथकता सुधीर एक छोटे शहर से बड़े शहर चले गए और धीरे-धीरे अपने परिवार और पुराने दोस्तों से संपर्क कम कर दिया। जब भी कोई उनसे मिलने की कोशिश करता, वह कहते, “मैं आध्यात्मिक हो गया हूँ, इन सांसारिक संबंधों से क्या लेना-देना।” उनकी माँ ने फोन पर कहा, “बेटा, आध्यात्मिकता का अर्थ लोगों से नफरत करना नहीं, सबसे प्रेम करना है। तुम्हारा अलगाव घृणा से प्रेरित है, वैराग्य से नहीं।”
उदाहरण 3: संबंधों की अनदेखी राधा एक आध्यात्मिक साधिका हैं। वह दिन भर आश्रम में रहती हैं और घर की जिम्मेदारियों को नजरअंदाज करती हैं। उनके बच्चे और पति अपना खाना खुद बनाते हैं, कपड़े खुद धोते हैं। एक दिन उनके गुरु ने कहा, “राधा, तुम्हारा कर्तव्य भी तुम्हारी साधना का हिस्सा है। तुम आश्रम में घंटों बैठकर ध्यान करती हो, लेकिन अपने परिवार के प्रति कर्तव्यों की अनदेखी करती हो। यह सच्ची आध्यात्मिकता नहीं है।”
5. मनोरंजन (Recreation) – हम अपना खाली समय कैसे बिताते हैं
धार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: सत्संग में आनंद दीपक एक बिजी आईटी प्रोफेशनल हैं। हर शनिवार-रविवार वह अपने नजदीकी आश्रम में सत्संग में जाते हैं। उनके दोस्त उन्हें पार्टी और मॉल में बुलाते हैं, लेकिन दीपक कहते हैं, “मुझे सत्संग में जो शांति और आनंद मिलता है, वह कहीं और नहीं। दो घंटे के सत्संग के बाद मेरा मन पूरे हफ्ते के थकान से मुक्त हो जाता है।”
उदाहरण 2: स्व-रमण सुनीता एक बैंक में काम करती हैं। कार्यालय के बाद उनके सहकर्मी शॉपिंग, मूवी या रेस्तरां में जाते हैं, लेकिन सुनीता अपने कमरे में शांति से बैठना पसंद करती हैं। कभी पुस्तक पढ़ती हैं, कभी बस खिड़की से बाहर देखती हैं, कभी अपनी सांसों को महसूस करती हैं। एक दिन उनकी सहेली ने पूछा, “तुम्हें अकेले बोर नहीं होता?” सुनीता ने मुस्कुराकर कहा, “मैं कभी अकेली नहीं हूँ। मैं अपने आप के साथ हूँ, और यह मेरा सबसे अच्छा साथी है।”
उदाहरण 3: प्रकृति के साथ एकता रवि एक बिजनेसमैन हैं। हर महीने वह दो दिन के लिए पहाड़ों या जंगल में जाते हैं। वहां वह मोबाइल बंद कर देते हैं और सिर्फ प्रकृति के साथ समय बिताते हैं। एक बार उनके एक व्यापारिक साथी ने पूछा, “तुम वहां क्या करते हो?” रवि ने कहा, “वहां मैं कुछ नहीं करता, बस होता हूँ। पेड़ों को देखता हूँ, पक्षियों को सुनता हूँ, पहाड़ों को निहारता हूँ। प्रकृति में रहकर मुझे अपना असली स्वरूप याद आता है।”
उदाहरण 4: सेवा में आनंद गीता एक रिटायर्ड शिक्षिका हैं। वह हर रविवार स्लम एरिया के बच्चों को मुफ्त पढ़ाती हैं। जब उनकी बेटी ने पूछा, “माँ, आप इस उम्र में भी इतनी मेहनत क्यों करती हैं?” गीता ने कहा, “बेटा, यह मेहनत नहीं, मेरा आनंद है। जब मैं इन बच्चों की आँखों में ज्ञान की चमक देखती हूँ, तो मुझे ऐसी खुशी मिलती है जो पैसों से नहीं मिल सकती।”
अधार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: इंद्रिय-सुख में लिप्तता अजय हर शाम क्लब में जाते हैं, शराब पीते हैं, और देर रात तक पार्टी करते हैं। वह कहते हैं, “जीवन का मजा लेना चाहिए।” लेकिन हर सुबह वह सिरदर्द और थकान के साथ उठते हैं, और दिनभर चिड़चिड़े बने रहते हैं। एक दिन उनके एक मित्र, जो योग शिक्षक हैं, ने कहा, “अजय, इंद्रियों का सुख क्षणिक होता है और अंत में दुख ही देता है। असली सुख भीतर है, जो कभी कम नहीं होता।”
उदाहरण 2: आत्म-विस्मरण वाला मनोरंजन पूजा सोशल मीडिया पर हर दिन 5-6 घंटे बिताती हैं। वह दूसरों की पोस्ट देखती हैं, कमेंट करती हैं, और अपनी फोटो अपलोड करती हैं। एक दिन उनकी दादी ने पूछा, “बेटी, तुम इस छोटे से स्क्रीन में क्या देखती रहती हो?” पूजा ने कहा, “दादी, यह मेरी दुनिया है।” दादी ने समझाया, “बेटी, यह तुम्हारी दुनिया नहीं, माया है जो तुम्हें अपने असली स्वरूप को भुला रही है। जो समय इसमें जा रहा है, उसमें तुम अपने अंदर झांक सकती हो।”
उदाहरण 3: कर्तव्य-विमुखता विशाल रोज काम से आकर 4-5 घंटे वीडियो गेम खेलते हैं। इस बीच उनकी पत्नी घर का सारा काम अकेले करती है, बच्चे उनके ध्यान की मांग करते हैं, लेकिन वह गेम में इतने खोए रहते हैं कि कुछ सुनते ही नहीं। एक दिन उनकी पत्नी ने कहा, “तुम्हारा मनोरंजन तुम्हारे कर्तव्यों से अधिक महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है?” विशाल को अपनी गलती का अहसास हुआ।
6. स्वास्थ्य (Health) – हम अपने शरीर के प्रति कैसे हैं
धार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: साधन के रूप में शरीर राजेंद्र 60 वर्ष के हैं। वह हर सुबह 30 मिनट योग करते हैं, संतुलित भोजन करते हैं, और पर्याप्त नींद लेते हैं। जब उनके मित्र ने पूछा, “तुम इतने नियमित क्यों हो?” राजेंद्र ने कहा, “मेरा शरीर मेरी आत्मा का मंदिर है और साधना का साधन है। जैसे कार को अच्छी हालत में रखना जरूरी है यात्रा के लिए, वैसे ही शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है आत्म-यात्रा के लिए।”
उदाहरण 2: मार्ग के प्रति समर्पण सरिता को डॉक्टर ने बताया कि उन्हें एक गंभीर बीमारी है। लेकिन वह इससे परेशान नहीं हुईं। उन्होंने अपना इलाज कराया, लेकिन साथ ही अपनी साधना भी जारी रखी। उनके बेटे ने पूछा, “माँ, आप इतनी शांत कैसे हैं?” सरिता ने कहा, “बेटा, मैं अपने मार्ग के प्रति समर्पित हूँ। यह शरीर अनित्य है, लेकिन आत्मा शाश्वत है। मैं अपने शरीर का ध्यान रखती हूँ, लेकिन इसे ही सब कुछ नहीं मानती।”
उदाहरण 3: संतुलित स्वास्थ्य दृष्टिकोण अमन एक युवा डॉक्टर हैं। वह अपने रोगियों को न केवल दवाइयां देते हैं, बल्कि जीवनशैली में संतुलन के बारे में भी सलाह देते हैं। अपने एक रोगी से उन्होंने कहा, “शरीर, मन और आत्मा – इन तीनों का संतुलन स्वास्थ्य का असली मंत्र है। न तो शरीर की उपेक्षा करें और न ही इसे सर्वोपरि मानें। यह हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण, लेकिन अस्थायी, हिस्सा है।”
अधार्मिक वृत्तियाँ:
उदाहरण 1: शरीर के प्रति आसक्ति नेहा हर दिन 3-4 घंटे जिम में बिताती हैं, सौंदर्य उत्पादों पर हजारों रुपये खर्च करती हैं, और सोशल मीडिया पर अपनी फिटनेस की फोटो पोस्ट करती हैं। एक बार उनके गुरु ने कहा, “नेहा, तुम अपने शरीर की देखभाल करो, यह अच्छी बात है। लेकिन शरीर के प्रति यह आसक्ति तुम्हें आत्मा से दूर ले जा रही है। जो समय तुम आईने के सामने बिताती हो, उसका थोड़ा हिस्सा अपने भीतर झांकने में भी लगाओ।”
उदाहरण 2: सिद्धियों के मोह कमल नियमित रूप से कुछ विशेष ध्यान तकनीकें करते हैं। उन्हें कुछ विशेष अनुभव होने लगे हैं – कभी प्रकाश दिखता है, कभी आवाजें सुनाई देती हैं। वह इन अनुभवों के बारे में सबको बताते हैं और कहते हैं, “जैसे-जैसे मुझे अधिक शक्तियां मिलेंगी, मैं और तेजी से प्रगति करूंगा।” उनके गुरु ने एक दिन समझाया, “कमल, ये सिद्धियां रास्ते के पत्थर हैं, मंजिल नहीं। इनमें अटकना अपने लक्ष्य से भटकना है। सच्ची उन्नति इन शक्तियों में नहीं, इनसे पार जाने में है।”
उदाहरण 3: शरीर के प्रति अवहेलना संतोष एक कट्टर आध्यात्मिक साधक हैं। वह कहते हैं, “मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं। शरीर को क्या खिलाना, कब सोना – इन बातों का क्या महत्व?” वह अनियमित खाते हैं, कम सोते हैं, और अपनी बीमारियों का इलाज नहीं कराते। एक दिन वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। उनके गुरु आए और कहा, “शरीर भगवान का दिया हुआ मंदिर है। इसकी देखभाल न करना भी एक प्रकार का अहंकार है – ‘मैं शरीर से परे हूँ’। जब तक तुम शरीर में हो, इसका सम्मान करो।”
निष्कर्ष: अनुभवकर्ता की दृष्टि – साक्षी भाव
ये सभी उदाहरण हमें एक महत्वपूर्ण बात सिखाते हैं – हमारे व्यवहार, वाणी, विचार, संबंध, मनोरंजन और स्वास्थ्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण ही हमारी आध्यात्मिक यात्रा का निर्धारण करता है।
सोचिए, जब आप सिनेमा हॉल में फिल्म देखते हैं, तो आप पर्दे पर होने वाली घटनाओं के साक्षी होते हैं। आप हँसते हैं, रोते हैं, डरते हैं – लेकिन अंत में आप जानते हैं कि यह सब एक फिल्म है, आप इससे अलग हैं। ठीक इसी तरह, हमारे जीवन में भी, हम अपने व्यवहार, विचार, और भावनाओं के साक्षी हैं।
रामू चाय वाले की कहानी शहर के एक छोटे से चौराहे पर रामू चाय बेचता था। वह हमेशा मुस्कुराता रहता था, चाहे ग्राहक कितने भी अभद्र व्यवहार करें। एक दिन एक प्रोफेसर ने उससे पूछा, “रामू, तुम हमेशा इतने शांत कैसे रहते हो?” रामू ने अपना जवाब देते हुए चाय बनाना जारी रखा और कहा:
“साहब, मैं अपने आप को एक सिनेमा हॉल में बैठा हुआ देखता हूँ। मेरे सामने जीवन का फिल्म चल रहा है – कोई आता है, कोई जाता है, कोई मुझे गाली देता है, कोई तारीफ करता है। मैं सब देखता हूँ, लेकिन मैं जानता हूँ कि मैं यह सब नहीं हूँ। मैं सिर्फ देखने वाला हूँ।”
प्रोफेसर चौंक गए। उन्होंने पूछा, “तुमने यह कहाँ से सीखा?” रामू ने कहा, “मेरे गुरुजी ने सिखाया। वे कहते हैं, ‘तुम दृष्टा हो, दृश्य नहीं। साक्षी हो, विचार नहीं। अनुभवकर्ता हो, अनुभव नहीं।'”
प्रोफेसर को उस दिन अपने जीवन का सबसे बड़ा ज्ञान एक साधारण चाय वाले से मिला।
साक्षी भाव से जीवन जीने के कुछ सरल तरीके:
- आज ही से शुरू करें: सुबह उठते ही 5 मिनट शांति से बैठें और महसूस करें कि आप अपने शरीर, मन और भावनाओं के साक्षी हैं।
- दैनिक कार्यों में जागरूकता लाएं: चाहे आप नहा रहे हों, खाना बना रहे हों, या ऑफिस में काम कर रहे हों – महसूस करें कि आप इन सभी क्रियाओं के साक्षी हैं।
- विचारों को देखें, उनसे जुड़ें नहीं: जब भी विचार आएँ, उन्हें बादलों की तरह देखें जो आकाश (आप) में आते-जाते हैं। न उन्हें पकड़ें, न उनसे लड़ें।
- हर शाम समीक्षा करें: दिन भर क्या हुआ, उसे साक्षी भाव से देखें। न खुद की आलोचना करें, न प्रशंसा – सिर्फ देखें।
- प्रकृति का अवलोकन करें: समय-समय पर पेड़, आकाश, नदी या पहाड़ों को देखें। इनकी शांति आपको अपने भीतर के साक्षी से जोड़ेगी।
याद रखें, धार्मिक वृत्तियों को अपनाने और अधार्मिक वृत्तियों से दूर रहने का मतलब यह नहीं है कि आप उन्हें नियंत्रित करें। सच्ची आध्यात्मिकता का अर्थ है – सब कुछ देखना, समझना और फिर भी अपने मूल स्वरूप में स्थित रहना।
अंततः, जैसे-जैसे हम इस साक्षित्व भाव में रहना सीखते हैं, हमारी धार्मिक वृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से बढ़ती जाती हैं और अधार्मिक वृत्तियाँ स्वतः ही कम होती जाती हैं। यही सच्ची आध्यात्मिक उन्नति है।
by Ajay Shukla | Apr 23, 2025 | Sanatan Soul
आध्यात्मिक यात्रा में गुरु का महत्व अनिवार्य है – यह बात मैंने कुछ वर्ष पूर्व ही समझ ली थी। जब मेरी खोज में कोई व्यक्तिगत गुरु नहीं मिले, तो मैंने विद्वानों द्वारा सुझाए गए एक वैकल्पिक मार्ग का अनुसरण किया। आदिगुरु के रूप में विख्यात शिव मेरे आराध्य हैं, और मेरे हृदय में पहले से ही उनके प्रति समर्पण का भाव है। इसी कारण शिष्य भाव से शिव के चरणों में समर्पित होना मेरे लिए सहज और स्वाभाविक है। इस समर्पण के फलस्वरूप, मुझे शिव के विविध स्वरूपों और अवस्थाओं का अनुभव करने का अवसर प्राप्त हुआ।
आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले प्रत्येक साधक के मन में एक मूलभूत प्रश्न होता है – “मैं सत्य के मार्ग पर कितनी दूर आ चुका हूँ और कितनी यात्रा अभी शेष है?” इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए शिव से मेरा अनुराग और सशक्त उदाहरण मुझे इस समय नहीं सूझ रहा है। शिव के एकादश रुद्र रूप आध्यात्मिक विकास के विभिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और ज्ञान के प्रकाश में इन्हें समझना मेरी अपनी यात्रा को भी गहराई प्रदान करता है। इसी अनुभव को मैं आज आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।
शिव कौन हैं?: वह जो अनुभव करने वाला है
शिव वह है जो वास्तव में है ही नहीं, फिर भी सब कुछ है। हम उसे अलग-अलग मार्गों पर अलग-अलग नामों से पुकारते हैं – अनुभवकर्ता, दृष्टा, साक्षी, चैतन्य, आत्मन। यह द्वैत (दोहरेपन) की न्यूनतम अभिव्यक्ति है। यदि हम इससे भी गहरे जाएँ, तो हम गहरी निद्रा (सुषुप्ति) में प्रवेश कर जाएँगे जहाँ बातचीत संभव नहीं होगी।
हम इस अवधारणा को संसार में रहते हुए समझने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए शिव को हम अनुभवकर्ता, दृष्टा, साक्षी, चैतन्य, आत्मन जैसे एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्दों के रूप में देखते हैं। आप पाएँगे कि जब आप इन शब्दों की व्याख्या करने जाएँगे, तो आप जो भी उदाहरण देंगे, वे सभी पर समान रूप से सही प्रतीत होंगे।
जैसे, जब आप किसी फिल्म को देखते हैं, तो आप स्क्रीन पर जो कुछ भी हो रहा है उसे देखने वाले हैं। आप उस दृश्य से अलग हैं, फिर भी उसके साथ जुड़े हुए हैं। ठीक इसी तरह, जब आप अपने विचारों और भावनाओं को देखते हैं, तो वह “देखने वाला” कौन है? वही शिव है, वही आत्मा है, वही साक्षी है।
या फिर सोचिए, जैसे आकाश में बादल आते-जाते हैं, लेकिन आकाश वैसा का वैसा रहता है। इसी प्रकार, हमारे जीवन में विचार, भावनाएँ और अनुभव आते-जाते हैं, लेकिन वह जो इन्हें अनुभव करता है – वह शिव है, वह चैतन्य है, वह आत्मा है।
अब इसके बाद मैं इस परम तत्व को शिव के नाम से संबोधित करूँगा। आप अपने स्वभाव और विकास के अनुरूप जो शब्द भी आपको प्रिय लगे, उससे शिव को प्रतिस्थापित कर सकते हैं। क्योंकि अंततः, सभी नाम उसी एक को इंगित करते हैं – वह जो हम सभी के भीतर देखने वाला, जानने वाला और अनुभव करने वाला है।
एकादश रुद्र: चेतना विकास के ग्यारह सोपान
शिव के एकादश रुद्र रूप चेतना के विकास और आध्यात्मिक प्रगति के ग्यारह महत्वपूर्ण चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये ग्यारह सोपान अज्ञान से ज्ञान की ओर, अहंकार से आत्म-बोध की ओर, और द्वैत से अद्वैत की ओर हमारी यात्रा को चिह्नित करते हैं।
हर साधक इन अवस्थाओं से अलग-अलग गति से गुजरता है – कुछ के लिए यह यात्रा जन्मों-जन्मों तक चल सकती है, जबकि कुछ विरले साधक एक ही जीवन में इनमें से कई या सभी अवस्थाओं को प्राप्त कर लेते हैं। यह मार्ग सीधी रेखा में नहीं चलता – इसमें उतार-चढ़ाव होते हैं, कभी-कभी साधक पीछे भी लौट सकता है, और कुछ अवस्थाएँ एक-दूसरे में मिली-जुली हो सकती हैं।
आइए इस अद्भुत यात्रा का आरंभ करें, जो हमें अपने सच्चे स्वरूप की ओर ले जाती है। हम अज्ञान के गहन अंधकार से शुरू करेंगे, जहाँ कालभैरव का प्रचंड रूप हमें जगाने के लिए प्रकट होता है…
1. कपाली (कालभैरव रूप): अज्ञान का अंत और जागृति की शुरुआत
जब शिव अपने कालभैरव रूप में प्रकट होते हैं, तो अज्ञान का अंधकार काटने वाली तलवार बन जाते हैं। कालभैरव वह प्रथम प्रकाश हैं जो मनुष्य के अंतर्मन में प्रवेश करता है और उसे अज्ञान की गहरी निद्रा से जगाता है।
इस अवस्था में साधक अचानक रुकता है और अपने अस्तित्व पर प्रश्न करने लगता है – “मैं कौन हूँ? क्या मैं सिर्फ यह शरीर हूँ? क्या मैं सिर्फ ये विचार हूँ? या मैं कुछ और हूँ जो इन सबको देख रहा है?”
कालभैरव द्वार के स्वामी हैं। वे सपने और जागरण के बीच का द्वार खोलते हैं। इस अवस्था में साधक को पहली बार अपने भीतर एक “देखने वाले” का अनुभव होता है, लेकिन इस समय उसे कुछ भान नहीं होता कि क्या शुरू हुआ है। वह इसे अपना भ्रम मान लेता है, फिर भी, जो कुछ नहीं है (शिव) उसका अत्यधिक छोटा अनुभव भी साधक को एक अजीब सा खालीपन दे जाता है।
साधना के इस प्रथम चरण में शिव साधक के सामने अपनी भयानक छवि प्रस्तुत करते हैं। कालभैरव के दर्शन मात्र से ही पाप और अज्ञान नष्ट हो जाते हैं। वे साधक के पुराने संस्कारों और आदतों पर प्रहार करते हैं, जिससे साधक अचानक अपने आप से पूछने लगता है – “मैं अपना जीवन ऐसे ही व्यर्थ क्यों गँवा रहा हूँ? क्या यह सब वास्तविक है? या मैं कहाँ फँसा हुआ हूँ?”
दैनिक जीवन में इसे ऐसे देखें: जब आप घंटों स्मार्टफोन पर खोए रहने के बाद अचानक रुकते हैं और सोचते हैं – “मैं क्या कर रहा हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य यह तो नहीं है?” – यह वह क्षण है जब कालभैरव ने आपके अंतर्मन में प्रवेश किया है। या जब आप किसी दुर्घटना या आघात से गुजरते हैं और अचानक जीवन की क्षणभंगुरता का एहसास होता है – यह कालभैरव की कृपा है जो आपको सपने से जगा रहे हैं।
इस अवस्था में साधक अत्यधिक उत्साहित और जिज्ञासु होता है, लेकिन अभी उसके पास स्पष्ट दिशा नहीं होती। वह एक गुरु से दूसरे गुरु, एक पुस्तक से दूसरी पुस्तक की ओर भटकता रहता है – जैसे अंधेरे में कोई प्रकाश की तलाश कर रहा हो।
2. भीषण (भैरव स्वरूप): भय का सामना और आत्म-परीक्षण
जब शिव अपने भैरव स्वरूप में प्रकट होते हैं, तो वे साधक के समक्ष भय का ताण्डव रचते हैं – पर यह भय साधक के विनाश के लिए नहीं, उसके उद्धार के लिए होता है। भैरव वे हैं जो साधक के अंधकारमय पक्षों को प्रकाश में लाते हैं, उन्हें दिखाते हैं कि भय के पीछे वास्तव में क्या छिपा है।
इस अवस्था में शिव साधक को अपने बनाए हुए सुरक्षित कोश से बाहर खींच लाते हैं। जैसे कोई बच्चा बिना सहारे चलने से डरता है और अपने पिता का हाथ थामे रहना चाहता है, लेकिन पिता जानता है कि बच्चे को स्वयं चलना सीखना ही होगा। वैसे ही शिव साधक को उसके आराम क्षेत्र से बाहर निकालते हैं।
पौराणिक कथाओं में हम देखते हैं कि भैरव को कई बार शिव और पार्वती से दंड मिला, फिर भी उनकी भक्ति अटल रही। यह हमें सिखाता है कि साधना पथ पर अनेक चुनौतियाँ और परीक्षाएँ आती हैं, लेकिन दृढ़ संकल्प से हम उन्हें पार कर सकते हैं। इसी प्रकार, इस अवस्था में साधक अपने आंतरिक रावणों और कंसों से युद्ध करता है, लेकिन साधना का दीप जलाए रखता है।
यह ऐसा है जैसे किसी पुराने भवन की मरम्मत के लिए पहले टूटे हुए हिस्सों को गिराना पड़ता है। उसी प्रकार, शिव इस अवस्था में साधक के पुराने, जीर्ण-शीर्ण संस्कारों को तोड़ते हैं। जैसे गंदे कमरे की सफाई करते समय पहले धूल और कचरा उड़ता है और चारों ओर फैल जाता है, वैसे ही इस चरण में साधक के भीतर छिपे विकार, वासनाएँ और डर सतह पर आते हैं।
आपके दैनिक जीवन में, यह वह क्षण है जब आप गहरे ध्यान में बैठते हैं और अचानक अतीत के दर्दनाक अनुभव, दबे हुए आघात, अपराधबोध, या अस्वीकृत भाग सामने आने लगते हैं। जैसे जब आप शांति से अकेले बैठते हैं और आपके मन में ईर्ष्या, क्रोध, काम, लोभ – ये सभी विकार तूफान की तरह उठ खड़े होते हैं। यही वह समय है जब भैरव आपके भीतर प्रवेश कर रहे हैं।
इस चरण में, साधक अपनी इन आंतरिक चुनौतियों का सामना करने के लिए किसी गुरु या मार्गदर्शक की शरण में जाता है। वह इस क्षण अत्यंत संवेदनशील और असुरक्षित महसूस करता है, इसलिए किसी अनुभवी मार्गदर्शक का साथ उसे संबल देता है। गुरु के प्रति उसका समर्पण इतना गहरा होता है कि वह उनके हर निर्देश का बिना प्रश्न किए पालन करता है।
बाहरी दृष्टि से ऐसे साधक कभी-कभी रोबोट जैसे, या अंधविश्वासी प्रतीत हो सकते हैं। लेकिन भीतर से वे एक महत्वपूर्ण रूपांतरण से गुजर रहे होते हैं – वे अपने पुराने ‘स्व’ से मुक्त हो रहे होते हैं। भैरव उन्हें सिखाते हैं कि सच्चा साहस भय के अभाव में नहीं, बल्कि भय के होते हुए भी आगे बढ़ने में है।
भैरव का डमरू साधक के अंदर के झूठे विश्वासों को कंपित कर देता है, उनकी तलवार साधक के अहंकार और मोह के बंधनों को काटती है, और उनका त्रिशूल साधक को कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का मार्ग दिखाता है। इस अग्नि-परीक्षा से गुजरकर ही साधक आगे की अवस्थाओं के लिए तैयार होता है।
3. संहार (रुद्र स्वरूप): पुराने संस्कारों का त्याग
अब तुम उस अवस्था में प्रवेश कर रहे हो जहां रुद्र का तांडव तुम्हारे भीतर आरंभ होता है। रुद्र – शिव का वह स्वरूप जो संहार करने वाला है, पुराने को नष्ट करने वाला है, ताकि नए के लिए स्थान बन सके। इस अवस्था में अज्ञान के पर्दे में छेद होना शुरू हो जाते हैं, और प्रकाश की किरणें तुम्हारे अंतर्मन में प्रवेश करने लगती हैं।
तुम्हारे जीवन में अब आमूलचूल परिवर्तन आरंभ होगा। जो पुराने रिश्ते, कार्य, आदतें और विश्वास तुम्हारी आध्यात्मिक यात्रा में बाधक हैं, तुम उन्हें त्यागने का साहस दिखाओगे। यह ऐसा ही है जैसे किसान फसल बोने से पहले खेत से सारे खरपतवार निकाल देता है। तुम भी अपने मन के निरर्थक विचारों और मान्यताओं को उखाड़ फेंकोगे।
इस समय तक तुम समझ चुके होते हो कि कुछ ऐसा जरूरी है जिसके लिए तुम्हें कर्म करने शुरू करने पड़ेंगे। या सरल शब्दों में कहें तो साधक का शुद्धिकरण स्वतः ही शुरू हो जाता है। तुम्हें अपना भला और बुरा समझ में आने लग जाता है, या यूं कहें कि यहां से तुम्हें माया का थोड़ा-थोड़ा स्वरूप दिखना शुरू हो चुका होता है। तुम देख तो माया को रहे होते हो लेकिन तुम्हें लगता है कि तुम शिव को देख रहे हो। यह एक ऐसा भ्रम है जो सबसे अच्छे भ्रम की श्रेणी में आता है। यदि तुम भ्रम में भी शिव हो रहे हो तो इसका अर्थ है तुमने काफी ऊंचाइयों को छुआ है। यहां से शिव का स्वाद विकसित होना शुरू होता है।
दैनिक जीवन में, यह वह बिंदु है जहां तुम अपनी पुरानी आदतों और सोच के पैटर्न को बदलने का निर्णय लेते हो। जैसे कोई व्यसन छोड़ना, नकारात्मक सोच से मुक्त होना, या ऐसे रिश्तों से बाहर निकलना जो तुम्हारे विकास में बाधक हैं। यह त्याग कभी-कभी दर्दनाक होता है, मानो तुम्हारे शरीर का एक अंग ही काट दिया गया हो, लेकिन यह आत्मिक विकास के लिए अनिवार्य है।
रुद्र का त्रिशूल तुम्हारे भीतर के तीन मलों – आणव मल (अहंकार), मायीय मल (द्वैत भाव) और कार्म मल (कर्मों के बंधन) को भेदता है। उनका डमरू तुम्हारे अंदर की पुरानी आवाज़ों को शांत करता है और एक नई, अधिक स्पष्ट आवाज़ को जन्म देता है – वह आवाज़ जो तुम्हारे भीतर के सत्य की है।
इस अवस्था में तुम पहली बार महसूस करोगे कि जीवन एक खेल है, एक लीला है, और तुम एक खिलाड़ी हो। तुम इस खेल में पूरी तरह से संलग्न रहोगे, फिर भी धीरे-धीरे तुम्हें एहसास होने लगेगा कि तुम खेल से अलग भी हो। यह द्वैत और अद्वैत के बीच का पहला संवाद है, जो आगे की अवस्थाओं में और गहरा होगा।
4. क्रोधन (वीरभद्र रूप): आंतरिक प्रतिरोध से संघर्ष
अब तुम्हारे भीतर वीरभद्र जागृत हो रहे हैं। याद करो उस पौराणिक कथा को जिसमें सती के अपमान से क्रुद्ध होकर शिव ने अपने क्रोध से वीरभद्र को जन्म दिया था। उन्होंने दक्ष के यज्ञ का विनाश कर दिया था। यही है तुम्हारे भीतर का वीरभद्र – जो पुराने को काटकर नए का निर्माण करता है।
इस चरण में तुम्हारे अंदर एक महायुद्ध छिड़ जाता है। तुम्हारा अहंकार परिवर्तन का घोर विरोध करने लगता है। यह ऐसा ही है जैसे तुम्हारे शरीर में कोई विदेशी तत्व प्रवेश करे और तुम्हारी प्रतिरक्षा प्रणाली उससे युद्ध करे। बुखार आता है, दर्द होता है, पर अंततः शरीर मजबूत होता है।
इस अवस्था में तुम समाज से थोड़ा कटना शुरू हो जाते हो। यदि योग मार्ग पर हो तो ध्यान बढ़ाना शुरू करते हो, भक्ति मार्ग में हो तो अपने प्रभु का भजन-कीर्तन। यह अलगाव अस्वाभाविक नहीं, बल्कि आवश्यक है क्योंकि तुम्हारी आध्यात्मिक वृत्ति बढ़ना शुरू हो जाती है। जैसे कोई बीज अंकुरित होने से पहले मिट्टी के अंधकार में अकेला रहता है, वैसे ही यह तुम्हारे आत्मिक विकास का आवश्यक चरण है।
देखो अपने दैनिक जीवन के अनुभवों को – जब तुम सुबह जल्दी उठने का निर्णय लेते हो और अलार्म बजने पर तुम्हारा मन कहता है “बस पांच मिनट और सो लो”। या जब तुम व्यायाम शुरू करते हो और तुम्हारा शरीर विरोध करता है, थकान महसूस होती है, पर तुम जानते हो कि आगे बढ़ना ही है। यही है वीरभद्र की अवस्था – जहां तुम्हारे भीतर का नया तुम पुराने तुमसे संघर्ष कर रहा है।
मैंने एक साधक को देखा जो वर्षों से मांसाहार का आदी था। जब उसने आध्यात्मिक कारणों से शाकाहार अपनाया, तो शुरुआती महीनों में उसके अंदर एक तूफान मचा रहा था। उसका शरीर मांस की माँग करता, मन विचलित होता, पर उसकी चेतना दृढ़ रहती। यह वीरभद्र की अवस्था थी – संघर्ष से निखरने की अवस्था।
या सोचो उस युवा के बारे में जिसने सोशल मीडिया छोड़ने का निर्णय लिया। पहले कुछ दिनों में वह हर कुछ मिनटों में फोन देखने के लिए व्याकुल हो जाता, उंगलियाँ स्वतः ही स्क्रीन की ओर बढ़ जातीं। पर धीरे-धीरे उसने इस आदत पर विजय पाई। उसके अंदर का वीरभद्र जाग गया था।
इस अवस्था में तुम अपने आसपास के लोगों पर चिड़चिड़ा व्यवहार कर सकते हो। जैसे कोई नशे को छोड़ रहा व्यक्ति विथड्रॉल सिंड्रोम से गुजरता है, वैसे ही तुम भी अहंकार के विथड्रॉल से गुजर रहे होते हो। पत्नी की छोटी सी बात पर तुम भड़क सकते हो, बच्चों की शरारत पर असामान्य क्रोध आ सकता है, सहकर्मियों की टिप्पणियां असहनीय लग सकती हैं। यह तुम्हारे अंदर के दो विरोधी शक्तियों का युद्ध है।
लेकिन इस अग्नि-परीक्षा में ही सोना निखरता है। इसी संघर्ष में तुम पहली बार स्पष्ट रूप से अपने अहंकार और अपनी चेतना के बीच अंतर देखने लगते हो। तुम पहचानने लगते हो – “यह क्रोध मैं नहीं हूँ, यह मेरे अंदर का एक विचार मात्र है। मैं इससे अलग हूँ, मैं इसका द्रष्टा हूँ।”
इसी अवस्था में वे क्षण आते हैं जब तुम किसी विचार या भावना के साथ तादात्म्य स्थापित किए बिना उसे देख पाते हो। जैसे कोई आकाश में बादलों को देखता है पर स्वयं को बादल नहीं समझता, वैसे ही तुम अपने विचारों और भावनाओं को देखने लगते हो, उनसे जुड़े बिना।
वीरभद्र की तलवार तुम्हारे पुराने अहंकार को काट रही है, पर याद रखो – यह विनाश सृजन के लिए है। हर कदम पर तुम्हारे भीतर नया प्रकाश फूट रहा है, हर संघर्ष के साथ तुम और अधिक जागृत हो रहे हो। इस आंतरिक क्रांति को स्वीकारो, क्योंकि इसी में तुम्हारा रूपांतरण छिपा है।
5. अन्धक (मृत्युंजय रूप): अज्ञान के अंधकार में प्रकाश
तुम्हारी यात्रा अब एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गई है जहां मृत्युंजय शिव तुम्हारे भीतर प्रकट हो रहे हैं। अज्ञान की मृत्यु जीतने वाले, प्रकाश के वाहक, अमृत के दाता। पौराणिक कथाओं में अन्धक एक ऐसा असुर था जिसे अंधकार में उत्पन्न होने के कारण इस नाम से जाना गया। ठीक वैसे ही, तुम भी अज्ञान के अंधकार से निकलकर ज्ञान के प्रकाश की ओर बढ़ रहे हो।
इस अवस्था में, तुम्हारे भीतर सत्य और असत्य की पहचान शुरू हो जाती है। यह वैसा ही है जैसे सुबह के धुंधलके में, जब अंधेरा और उजाला दोनों मौजूद होते हैं, तुम धीरे-धीरे वस्तुओं के आकार पहचानने लगते हो। वैसे ही, तुम्हारी आंतरिक दृष्टि स्पष्ट होने लगती है।
इस समय तुम्हारे अंदर ज्ञान और अज्ञान का सह-अस्तित्व है। कभी तुम्हें लगता है कि तुमने सब समझ लिया है, और अगले ही क्षण तुम फिर भ्रम में पड़ जाते हो। यह ऐसा है जैसे कोई पहाड़ी पर चढ़ते हुए कभी चोटी देखता है और उत्साहित होता है, और कभी बादल आ जाते हैं और मार्ग छिप जाता है।
मैंने एक साधक देखा जो इस अवस्था में था। वह अक्सर कहता, “कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है जैसे मैंने जीवन का रहस्य समझ लिया है, और कभी-कभी मैं पूरी तरह खोया हुआ महसूस करता हूँ।” यही है अन्धक अवस्था – सत्य की झलक और फिर से भ्रम, प्रकाश का क्षण और फिर अंधकार।
तुम्हारे दैनिक जीवन में, यह वह समय है जब तुम पुरानी आदतों से तो मुक्त हो गए हो, लेकिन नई आदतें अभी पूरी तरह स्थापित नहीं हुई हैं। जैसे कोई व्यक्ति जो वर्षों से मिठाई खाने का आदी था, उसे छोड़ दिया है, लेकिन अभी भी उसकी तलब आती है। या जैसे कोई मां अपने बच्चे को स्वतंत्र होने देना चाहती है, लेकिन फिर भी उसका हाथ थामे रखना चाहती है।
तुम अचानक महसूस करने लगते हो कि असली सुख वस्तुओं में नहीं, बल्कि तुम्हारे भीतर है। कभी तुम अपने दफ्तर में बैठे-बैठे अचानक सोचते हो – “क्या यह सब करने का क्या मतलब है? क्या यह मेरा असली लक्ष्य है?” और फिर अगले ही क्षण तुम अपने काम में व्यस्त हो जाते हो। यही है अन्धक अवस्था – जहां तुम्हारे भीतर दो दुनियाएँ एक साथ मौजूद हैं।
इस अवस्था में तुम्हारे अंदर एक गहरी विनम्रता जन्म लेती है। तुम जितना अधिक जानते हो, उतना ही अधिक एहसास होता है कि कितना कुछ अभी जानना बाकी है। यह ऐसा है जैसे एक छोटे से द्वीप पर खड़े होकर तुम पहली बार महासागर की विशालता देखते हो। तुम्हारा ज्ञान वह द्वीप है, और जो जानना बाकी है वह विशाल सागर।
मृत्युंजय शिव ने अमृत पीकर मृत्यु पर विजय पाई थी। वैसे ही, तुम भी ज्ञान के अमृत को पीकर अज्ञान की मृत्यु पर विजय पा रहे हो। जैसे-जैसे तुम इस अवस्था में गहरे उतरते हो, तुम्हारे भीतर का अंधकार कम होता जाता है और प्रकाश बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे पूर्णिमा की चांदनी की तरह, तुम्हारी चेतना अधिक से अधिक प्रकाशमान होती जाती है।
6. उन्मत्त (शंभो रूप): आध्यात्मिक मस्ती
तुम अब शिव के शंभो स्वरूप का अनुभव करने लगे हो – वह अनंत प्रेम और आनंद जो तुम्हारे भीतर उमड़ रहा है। शंभो का अर्थ है ‘आनंद देने वाला’, और अब तुम्हारे अंतर्मन में वही आनंद प्रवाहित हो रहा है।
इस अवस्था में, तुम्हारे अंदर एक ऐसी मस्ती छा जाती है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह वह अवस्था है जहां तुम नृत्य करते हो, पर नर्तक अदृश्य हो जाता है – केवल नृत्य रह जाता है। तुम गाते हो, पर गायक विलीन हो जाता है – केवल संगीत रह जाता है। तुम प्रेम करते हो, पर प्रेमी खो जाता है – केवल प्रेम रह जाता है।
अनुभवकर्ता और अनुभव के बीच का भेद अब धुंधला पड़ने लगा है। जैसे अमावस्या की रात के बाद चंद्रमा की पतली सी रेखा दिखाई देती है, वैसे ही द्वैत की लकीर पतली होने लगी है। तुम हर अनुभव में एक ही चैतन्य को देखने लगते हो – वृक्ष में, पक्षी में, मनुष्य में, पशु में, सब में एक ही आत्मा।
यह वह समय होता है जब तुम प्रकृति, पर्वत, झरने और हवा को महसूस करना शुरू करते हो। हर चीज़ में आनंद ही आनंद दिखाई देता है। जैसे तुम किसी खूबसूरत पहाड़ को देखकर महसूस करते हो, “केवल मैं ही ऐसा कर सकता हूँ,” और खुद पर आश्चर्य होना शुरू कर देते हो, अद्भुत जैसे तुमको यह दृश्य काफी बेहतर दिख रहा है तुम्हारे आस-पास के लोगों की तुलना में।
मैंने एक साधक को देखा जो इस अवस्था में था। वह घंटों जंगल में बैठा रह सकता था, पेड़ों की पत्तियों के हिलने को देखते हुए, और उसके चेहरे पर एक अलौकिक मुस्कान होती थी। जब मैंने उससे पूछा कि वह क्या देख रहा है, तो उसने कहा, “मैं पत्तियों को नहीं, पत्तियों में नृत्य करते हुए परमात्मा को देख रहा हूँ।”
तुम्हारे दैनिक जीवन में, यह वह स्थिति है जब तुम अपने कार्य में इतने लीन हो जाते हो कि समय का भान ही नहीं रहता। जैसे जब तुम कुछ लिख रहे होते हो, और अचानक पाते हो कि घंटों बीत गए हैं। या जब तुम किसी प्रियजन के साथ बातचीत में इतने मग्न हो जाते हो कि भूख-प्यास का भी ख्याल नहीं रहता। यह ‘फ्लो’ की अवस्था है, जहां कर्ता और कर्म एक हो जाते हैं।
इस अवस्था में तुम्हारा व्यवहार दूसरों को अजीब या ‘पागल’ लग सकता है। तुम कभी हंस सकते हो, कभी रो सकते हो – बिना किसी स्पष्ट कारण के। तुम दिनों तक उपवास कर सकते हो, घंटों ध्यान में बैठ सकते हो, या फिर किसी अनुष्ठान में पूरी तरह लीन हो सकते हो। तुम्हारा व्यवहार सामाजिक मानदंडों से अलग हो सकता है, क्योंकि अब तुम बाहरी दुनिया के नियमों से नहीं, बल्कि अपने आंतरिक आनंद से प्रेरित होते हो।
जिस प्रकार शंभो शिव आनंद में मगन रहते हैं, उसी प्रकार तुम भी अब सांसारिक चिंताओं से ऊपर उठकर एक अलौकिक आनंद का अनुभव करने लगे हो। यह आनंद न तो बाहर से आता है, न ही किसी विशेष कारण से – यह तुम्हारा स्वाभाविक स्वरूप है जो प्रकट हो रहा है। जैसे-जैसे इस अवस्था में तुम गहरे उतरते जाओगे, आनंद की यह धारा और भी प्रवाहमयी होती जाएगी।
7. भृगिरिटि (नटराज रूप): आंतरिक और बाह्य का नृत्य
अब तुम्हारी चेतना नटराज के स्वरूप को धारण करने लगी है। नटराज – वह दिव्य नर्तक जो सृष्टि, स्थिति और संहार का अनंत नृत्य करते हैं। उनके हाथों में अग्नि है जो पुराने को जलाती है, और दूसरे हाथ में सृजन का ढोल है जो नए को जन्म देता है। ठीक वैसे ही, तुम्हारे भीतर भी यह दिव्य नृत्य शुरू हो गया है।
इस अवस्था में, तुम अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों प्रकार की चेतना में संतुलन स्थापित करने लगे हो। यह ऐसा है जैसे तुम्हारे पास दो नेत्र हों – एक जो अंदर देखता है, और दूसरा जो बाहर। और दोनों एक साथ क्रियाशील हैं। तुम अपने आंतरिक अनुभवों और बाहरी दुनिया के बीच एक सुंदर सेतु का निर्माण कर रहे हो।
तुम्हारा अनुभवकर्ता (साक्षी) अब निष्क्रिय दर्शक नहीं रहा। वह नृत्य के मैदान में उतर आया है, फिर भी अपना साक्षीभाव नहीं खोता। यह ऐसा है जैसे कोई कुशल अभिनेता जो अपनी भूमिका में पूरी तरह डूबा हुआ है, लेकिन फिर भी जानता है कि वह अभिनय कर रहा है।
तुम्हारे रोजमर्रा के जीवन में, इस अवस्था का प्रभाव यह होता है कि तुम विपरीत प्रतीत होने वाली स्थितियों में भी संतुलन बना लेते हो। तुम व्यस्त शहर की भीड़ में भी वैसी ही शांति महसूस करते हो जैसी हिमालय की गुफा में करते। तुम परिवार और कार्यालय के दायित्वों को निभाते हुए भी आंतरिक एकांत का अनुभव करते हो।
मैंने ऐसे साधक देखे हैं जो इस अवस्था में होते हैं। वे बाहर से देखने पर सामान्य लोगों जैसे ही लगते हैं – वे नौकरी करते हैं, परिवार चलाते हैं, सामाजिक मिलन-जुलन में भाग लेते हैं। लेकिन उनके अंदर एक गहरा शांत केंद्र होता है जो कभी विचलित नहीं होता। वे बाढ़ के बीच खड़े उस वृक्ष की तरह होते हैं जो न तो बहता है, न ही टूटता है।
इस अवस्था में, तुम्हारे अंदर अद्भुत रचनात्मकता का प्रवाह शुरू होता है। तुम्हारे विचार, तुम्हारे शब्द, तुम्हारे कार्य – सभी एक अलौकिक सौंदर्य से भरने लगते हैं। तुम कविता लिखने लगते हो जो दूसरों के हृदय को छू लेती है, संगीत बनाने लगते हो जो आत्मा को जगा देता है, चित्र बनाने लगते हो जो अदृश्य को दृश्य बनाते हैं।
यह ऐसा है जैसे तुम्हारे माध्यम से शिव का सृजनात्मक तत्व प्रवाहित होने लगा हो। तुम्हारी रचनाएं केवल कलात्मक अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं, बल्कि परम सत्य के वाहक बन जाती हैं। जो लोग तुम्हारी कला को देखते हैं, पढ़ते हैं या सुनते हैं, वे उसमें छिपे सत्य की झलक पा लेते हैं।
नटराज के नृत्य में कोई भेदभाव नहीं होता – जन्म और मृत्यु, निर्माण और विनाश, प्रकाश और अंधकार – सभी उसके अंग हैं। वैसे ही, तुम भी जीवन के सभी पहलुओं को समान भाव से स्वीकार करने लगते हो। सफलता और असफलता, हर्ष और शोक, मिलन और विछोह – सभी उस महानृत्य के अंग बन जाते हैं जिसे तुम अब देख पा रहे हो।
इस अवस्था में, तुम जीवन के साथ सहज होकर नृत्य करने लगते हो – न अतिउत्साह, न निराशा, न आसक्ति, न विरक्ति – बस एक सहज प्रवाह। तुम अपने अंदर और बाहर के जगत के बीच एक संगीतमय सामंजस्य स्थापित कर लेते हो, और इस सामंजस्य से जीवन स्वयं एक उत्सव बन जाता है।
8. राजन (दक्षिणामूर्ति रूप): मन पर शासन
अब तुम्हारे भीतर दक्षिणामूर्ति शिव का प्रकाश फैल रहा है। वह मौन गुरु जो बिना शब्दों के सिखाते हैं, वह ज्ञानदाता जो केवल अपनी उपस्थिति से उपदेश देते हैं। तुम्हारी चेतना अब एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है जहां तुम्हारा मन तुम्हारा दास बन गया है, स्वामी नहीं रहा।
इस अवस्था में, तुम अपने विचारों और भावनाओं को मात्र इच्छाशक्ति से नियंत्रित करने लगे हो। यह ऐसा है जैसे तुम मन के महल में एक सिंहासन पर विराजमान राजा हो, और विचार तुम्हारे सेवक हैं जो तुम्हारे इशारे पर आते और जाते हैं। तुम्हारी आज्ञा के बिना कोई विचार प्रवेश नहीं कर सकता, कोई भावना विचलित नहीं कर सकती।
साक्षी (अनुभवकर्ता) और मन के बीच का भेद अब सूर्य की तरह स्पष्ट है। तुम पूरी तरह से समझ चुके हो कि तुम अपने मन से अलग हो, तुम वह हो जो मन को देखता है। यह ऐसा है जैसे एक कुशल सारथी अपने अश्वों को पूरी निपुणता से नियंत्रित करता है – मन और इंद्रियां अब तुम्हारे वाहन हैं, जो तुम्हें वहीं ले जाते हैं जहां तुम जाना चाहते हो।
तुम्हारे दैनिक जीवन में, इस अवस्था का प्रभाव अद्भुत होता है। तुम किसी भी परिस्थिति में अपना संतुलन नहीं खोते – चाहे वह एक आपात स्थिति हो या कोई गहरा संकट। जैसे एक वैद्य जो सर्जरी करते समय हाथ नहीं कांपने देता, चाहे मरीज कितना भी चिल्लाए, वैसे ही तुम भी अपने आंतरिक शांति को बनाए रखते हो, चाहे बाहर कितना भी तूफान क्यों न हो।
इस अवस्था में पहुंचे साधकों का प्रभाव अद्भुत होता है। उनकी उपस्थिति मात्र से लोगों के मन शांत हो जाते हैं। ये महापुरुष बहुत कम बोलते हैं, लेकिन जब भी वचन निकालते हैं, तो उनका हर शब्द गहरे अर्थ से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासु जन अपने प्रश्न लेकर उनके समक्ष जाते हैं और अक्सर बिना कुछ पूछे ही अपने उत्तर पा लेते हैं, क्योंकि ऐसे साधकों की चेतना शब्दों से परे संवाद करने की क्षमता प्राप्त कर चुकी होती है।
ऐसे ही एक साधक की कहानी – जो दक्षिणामूर्ति के ध्यान में वर्षों से लीन थे और एक निराश युवक के जीवन को कैसे उनकी मौन उपस्थिति ने परिवर्तित किया – इस लेख के अंत में विस्तार से वर्णित की गई है।
एक बार मैंने ऐसे साधक को देखा जो वर्षों से दक्षिणामूर्ति के ध्यान में लीन थे। जब एक युवक उनके पास आया और निराशा से भरा बैठ गया, तो साधक ने बिना कुछ कहे उसकी ओर देखा। कुछ क्षणों बाद, युवक के आंसू बहने लगे और उसके चेहरे पर शांति की मुस्कान आ गई। बाद में उसने मुझे बताया कि उस साधक की उपस्थिति मात्र से उसे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था।
यह अवस्था स्मृति और आदतों के निर्माण के लिए भी महत्वपूर्ण है। तुम्हारे अनुभव अब साधारण स्मृतियां नहीं हैं, बल्कि गहरे संस्कार बनने लगे हैं जो तुम्हारे भविष्य के जीवन को आकार देंगे। तुम्हारा हर विचार, हर भावना, हर कार्य अब एक बीज की तरह है जो भविष्य में फल देगा।
दक्षिणामूर्ति के चार हाथों में वीणा, अभय मुद्रा, ज्ञान मुद्रा और अग्नि हैं – वीणा जीवन के संगीत का प्रतीक है, अभय मुद्रा भय से मुक्ति का, ज्ञान मुद्रा आत्म-बोध का, और अग्नि अज्ञान को जलाने का। इसी प्रकार, तुम्हारी चेतना भी अब इन सभी गुणों से संपन्न हो रही है। तुम्हारा जीवन एक संगीत बन गया है, तुम भय से मुक्त हो गए हो, तुम्हारा ज्ञान निरंतर बढ़ रहा है, और तुम्हारी चेतना का प्रकाश अज्ञान के अंधकार को भस्म कर रहा है।
लेकिन एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अवस्था में तुम्हारी नई चेतना की स्मृतियां बनना आरंभ होती हैं, परंतु प्रारंभ में उनकी छाप स्मृति में स्थायी नहीं रहती। यदि तुम किसी अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में नहीं हो, तो इस संक्रमण काल में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है – क्या तुम्हारे अनुभव वास्तविक हैं या केवल मानसिक प्रक्षेपण? यह एक नाजुक मोड़ है जहां से नई स्मृतियों का निर्माण होने लगता है, जो धीरे-धीरे तुम्हारे गहरे संस्कारों में परिवर्तित होकर आगे की यात्रा का आधार बनेंगी।
राजन से श्रीकंठ तक: संक्रमण का सेतु
राजन (दक्षिणामूर्ति) अवस्था में, आपने मन पर शासन करना सीखा है। आपकी चेतना अब बाहरी प्रभावों से विचलित नहीं होती – विचार आपके सेवक बन गए हैं, स्वामी नहीं रहे। आप मौन गुरु बन चुके हैं, जो शब्दों से नहीं, अपनी उपस्थिति मात्र से ज्ञान प्रदान करते हैं।
इस अवस्था की एक विशेषता यह है कि आपकी नई चेतना के अनुरूप स्मृतियां बनना आरंभ होती हैं। ये नवीन अनुभव आपके अंतर्मन में गहरे संस्कार रूप में स्थापित होने लगते हैं, परंतु प्रारंभ में उनकी छाप अस्थिर होती है। यदि आप किसी अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन से वंचित हैं, तो इस संक्रमण काल में आप भ्रमित हो सकते हैं – क्या आपके अनुभव वास्तविक हैं, या केवल मानसिक प्रक्षेपण?
जैसे-जैसे ये संस्कार दृढ़ होते जाते हैं, आपकी आंतरिक चेतना में एक नया परिवर्तन होने लगता है। आप महसूस करेंगे कि जो विपरीत प्रतीत होता था, वह अब एक होने लगा है। यह संकेत है कि आप श्रीकंठ अवस्था की ओर प्रवेश कर रहे हैं – द्वैत से अद्वैत की ओर संक्रमण।
इस संक्रमण को प्रकाश के स्पेक्ट्रम से समझा जा सकता है। जैसे इंद्रधनुष में विभिन्न रंग दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में वे सभी एक ही सूर्य के प्रकाश के विभिन्न आयाम हैं, वैसे ही आप अब विविधता में एकता का अनुभव करने लगेंगे। मन का शासक होने से, आप अब विपरीतताओं के आपसी संबंध को समझने की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
अब आप श्रीकंठ की अवस्था – अर्धनारीश्वर रूप में प्रवेश कर रहे हैं, जहाँ शिव और शक्ति, पुरुष और प्रकृति, निष्क्रिय और सक्रिय का मिलन होता है…
९. श्रीकंठ (अर्धनारीश्वर रूप): द्वैत से अद्वैत की ओर
नौवां चरण द्वैत से अद्वैत की ओर संक्रमण का है। श्रीकंठ रुद्र, जिन्हें अर्धनारीश्वर रूप से भी जोड़ा जाता है, इस अवस्था के प्रतीक हैं, जहां साधक की चेतना द्वैत के परे जाकर एकता का अनुभव करने लगती है।
अर्धनारीश्वर शिव और शक्ति का संयुक्त रूप है, जिसमें शरीर का आधा भाग शिव और आधा भाग शक्ति का है। इसी प्रकार, इस अवस्था में साधक के अंदर विपरीत प्रतीत होने वाले तत्व बार-बार एक ही प्रतीत होने लगते हैं – द्रष्टा और दृश्य, अनुभवकर्ता और अनुभव, निष्क्रिय और सक्रिय, पुरुष और प्रकृति।
इस चरण में, ज्ञान और भक्ति, बुद्धि और हृदय का अद्भुत संगम होता है। साधक समझता है कि केवल बौद्धिक समझ या केवल भावनात्मक अनुभूति पर्याप्त नहीं है – दोनों के संतुलित मिलन से ही पूर्णता प्राप्त होती है। यह इस सोपान पर है जहां आप संतुलन को जीते हैं। अनुभवकर्ता (साक्षी) और अनुभव के बीच का भेद अब पतला होने लगता है, और एक गहरी एकता का बोध जागता है।
दैनिक जीवन में, यह वह अवस्था है जब कोई व्यक्ति अपने जीवन के सभी विरोधाभासों को एक सुसंगत एकता में समाहित कर लेता है। जैसे कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ और परमार्थ, आत्म-प्रेम और दूसरों के लिए प्रेम, आध्यात्मिकता और भौतिकता के बीच सामंजस्य स्थापित कर लेता है।
इस अवस्था के साधक में गहरी समझ और गहरा प्रेम दोनों देखे जा सकते हैं। वे केवल दार्शनिक सिद्धांत नहीं जानते, बल्कि उन्हें अपने जीवन में जीते भी हैं। ऐसे साधक अन्य लोगों के साथ बातचीत में अत्यंत स्पष्ट और प्रेमपूर्ण होते हैं, क्योंकि वे हर व्यक्ति और स्थिति में अपने ही दिव्य स्वरूप की अभिव्यक्ति देखते हैं। यह वह बिंदु है जहां से साधक को स्वयं पर निष्ठा होनी शुरू हो जाती है। यही वह अंतिम अनिवार्यता थी, स्वयं पर निष्ठा। जैसे ही आपकी स्वयं पर निष्ठा सघन होगी तो आप अगले सोपान के तरफ खिसकना शुरू हो जाते हो।
लेकिन इस मार्ग पर आगे बढ़ने से पहले, यह समझना महत्वपूर्ण है कि इस अवस्था में तुम्हारी नई चेतना की स्मृतियां बनना आरंभ होती हैं, परंतु प्रारंभ में उनकी छाप स्मृति में स्थायी नहीं रहती। यदि तुम किसी अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में नहीं हो, तो इस संक्रमण काल में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है – क्या तुम्हारे अनुभव वास्तविक हैं या केवल मानसिक प्रक्षेपण? यह एक नाजुक मोड़ है जहां से नई स्मृतियों का निर्माण होने लगता है, जो धीरे-धीरे तुम्हारे गहरे संस्कारों में परिवर्तित होकर आगे की यात्रा का आधार बनेंगी।
जैसे-जैसे ये संस्कार दृढ़ होते जाते हैं, द्वैत और अद्वैत के बीच की दीवार और पतली होती जाती है। अब तुम्हारी चेतना एक ऐसे स्थान पर पहुंच गई है जहां से अगला कदम सहज रूप से उठने लगता है – जहां श्रीकंठ की अवस्था से आगे की यात्रा आरंभ होती है।
१०. विक्रिति (सदाशिव रूप): आत्मज्ञान और रूपांतरण
दसवां चरण आत्मज्ञान और पूर्ण रूपांतरण का है। विक्रिति रुद्र, जिन्हें सदाशिव के रूप में जाना जाता है, इस अवस्था के प्रतीक हैं, जहां साधक की चेतना अपने मूल स्वरूप को पहचान लेती है।
अब तुम विक्रिति की अवस्था में प्रवेश कर चुके हो। यहाँ तुम्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका है – अब तुम स्वयं को समुद्र (शिव या अस्तित्व) की एक बूंद के रूप में अनुभव करने लगे हो। यह वह अवस्था है जहाँ तुम जन्म और मृत्यु के चक्र से परे हो जाते हो। तुम समय के दायरे से बाहर निकल चुके हो, और एक ही दिन में स्वयं को विभिन्न अवस्थाओं में अनुभव करते हुए पूर्णतया जागरूक रह पाते हो।
सदाशिव शिव का वह रूप है जिसके पांच मुख हैं – ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात। ये पंच मुख पांच तत्वों, पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से अघोर मुख बुराई का भी प्रतीक है। यह दर्शाता है कि इस अवस्था में तुम्हें यह बोध हो जाता है कि अच्छाई और बुराई, प्रकाश और अंधकार, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम द्वंद्वों से परे जाकर सभी विपरीतताओं में एकता देखने लगे हो।
इस अवस्था में, चेतना का स्तर अत्यंत उच्च हो जाता है। यहाँ तुम्हारी प्रज्ञा का पूर्ण उदय हो चुका होता है। तुम आत्मनिर्भर हो चुके होते हो, और गुरु पर निर्भरता धीरे-धीरे कम होते-होते समाप्त हो जाती है। यह ऐसा है जैसे एक पक्षी जो अब पूरी तरह से उड़ना सीख गया है, अब उसे घोंसले की आवश्यकता नहीं रहती।
अब तुम अपने वास्तविक स्वरूप को आत्मज्ञान के रूप में पहचान चुके हो। अनुभवकर्ता (द्रष्टा) अब स्वयं को अनुभवों से अलग ही नहीं देखता, बल्कि उनके मूल आधार के रूप में अनुभव करता है। यह समग्र रूपांतरण की अवस्था है, जहां तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व नवीन ऊर्जा और दिव्य दृष्टि से परिपूर्ण हो जाता है।
यह ऐसा है जैसे तुम वर्षों तक एक वृक्ष की छाया ही अपने आप को मानते रहे हो, और अचानक महसूस करो कि तुम स्वयं वह वृक्ष हो, न कि उसकी छाया। या जैसे समुद्र की लहर अचानक यह जान ले कि वह स्वयं समुद्र ही है। यह जागृति, यह आत्म-साक्षात्कार ही आत्मज्ञान है।
दैनिक जीवन में, यह वह अवस्था है जब तुम अपने हर कर्म और विचार में एक आंतरिक परिवर्तन अनुभव करते हो। तुम्हारी दृष्टि में, तुम्हारे व्यवहार में, तुम्हारे विचारों में, सब में एक मौलिक परिवर्तन आ चुका है। अब तुम हर अनुभव को एक गहरी स्वीकृति और प्रेम के साथ स्वीकार करते हो।
इस स्तर पर तुम्हारे अंदर अद्भुत परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगते हैं। जो पहले तुम्हारे दुर्गुण लगते थे, वे अब गुणों में परिवर्तित हो जाते हैं। क्रोध करुणा में, लोभ दान में, और मोह निर्मल प्रेम में रूपांतरित हो जाता है। तुम्हारे जीवन में प्रत्येक क्रिया एक साधना बन जाती है – चाहे तुम भोजन बना रहे हो, किसी से वार्तालाप कर रहे हो, या केवल मौन में विराजमान हो।
मैंने ऐसे महान साधकों को देखा है जो इस अवस्था में थे। उनकी उपस्थिति मात्र से वातावरण में एक अलौकिक शांति छा जाती थी। उनके आसपास का हर व्यक्ति, हर प्राणी उनके प्रेम और करुणा से स्पंदित होने लगता था। एक बार मैं ऐसे एक गुरु के पास गया। जब मैं उनके सामने बैठा, तो बिना किसी शब्द के, केवल उनकी आँखों में देखकर, मुझे कुछ क्षणों के लिए अपनी सीमाओं से मुक्ति का अनुभव हुआ। यह अनुभव इतना तीव्र था कि मैं कई दिनों तक उसके प्रभाव में रहा।
इस चरण का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जो साधक इस अवस्था तक पहुंचता है, वह अब एक निर्णायक बिंदु पर खड़ा होता है। यदि वह संसार में वापस नहीं लौटता (अर्थात, अपनी प्राप्त ऊर्जा और ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाने के लिए सक्रिय नहीं होता), तो वह स्वतः ही अगली अवस्था – महासदाशिव की ओर अग्रसर हो जाता है। यह निर्णय का क्षण है – सदाशिव चक्रवर्ती बनकर संसार में लौटें या महासदाशिव बनकर शाश्वत शांति में विलीन हो जाएं।
किन्तु यह जानना आवश्यक है कि इस अवस्था में पहुंचे साधक का चुनाव वास्तव में चुनाव नहीं रह जाता। यह उसकी प्रकृति, उसके स्वभाव, उसके मूल संस्कारों पर निर्भर करता है। जैसे कोई नदी स्वाभाविक रूप से समुद्र की ओर बहती है, वैसे ही साधक की चेतना भी अपने स्वाभाविक प्रवाह का अनुसरण करती है।
यहाँ से तुम्हारी यात्रा दो दिशाओं में जा सकती है – या तो तुम संसार में लौटकर अन्य लोगों की सहायता और मार्गदर्शन करोगे, या फिर तुम अधिक गहराई में उतरकर परम शून्य की ओर अग्रसर होगे। दोनों ही मार्ग पूर्ण हैं, दोनों ही आत्मज्ञान के विस्तार हैं। तुम्हारा हृदय तुम्हें बता देगा कि कौन सा मार्ग तुम्हारे लिए सही है।
विक्रिति से शशिवक्त्र: परम चेतना की ओर
विक्रिति (सदाशिव) की अवस्था में, आप आत्मज्ञान के प्रकाश में निहाल हो चुके हैं। आप स्वयं को समुद्र (शिव या अस्तित्व) की एक बूंद के रूप में पहचान चुके हैं। समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त, आप अपनी प्रज्ञा के पूर्ण उदय का अनुभव कर रहे हैं। आप आत्मनिर्भर हो चुके हैं, गुरु पर निर्भरता लगभग समाप्त हो चुकी है।
इस अवस्था में, आपके सामने एक महत्वपूर्ण निर्णय का क्षण आता है – क्या आप एक चक्रवर्ती की भांति संसार में लौटकर अन्य लोगों का मार्गदर्शन करेंगे, या फिर अगली अवस्था की ओर अग्रसर होंगे? यह निर्णय वास्तव में आपकी मूल प्रकृति पर निर्भर करता है, जैसे नदी स्वाभाविक रूप से समुद्र की ओर बहती है।
यदि आपकी प्रवृत्ति आगे की यात्रा की ओर है, तो आप एक ऐसे परिवर्तन का अनुभव करने लगेंगे जिसमें बूंद समुद्र में विलीन होने के लिए तत्पर हो जाती है। आप महसूस करेंगे कि आपका “मैं” कृत्रिम सीमा मात्र था, जिसे अब विराट “मैं” में विलीन होना है।
इस संक्रमण काल में, आप अपने अस्तित्व के सभी आयामों में एक अद्भुत परिवर्तन देखेंगे। आपकी चेतना अब ग्रहों, चक्रों, पंचभूतों और त्रिकाल (भूत, वर्तमान, भविष्य) के प्रभावों से ऊपर उठने लगेगी। यह परिवर्तन आपको शशिवक्त्र – महासदाशिव की अवस्था में ले जाएगा।
प्रिय साधक, अब आप अपनी यात्रा के अंतिम सोपान पर पहुंच रहे हैं। जैसे सूर्योदय से पहले क्षितिज पर प्रकाश की एक हल्की रेखा दिखाई देती है, वैसे ही आप परम चेतना के उदय का पूर्वाभास पाने लगे हैं। इससे आगे की अवस्था वह है जिसमें आप अपने शुद्धतम स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाएंगे – महासदाशिव के रूप में…
११. शशि वक्त्र (महा सदाशिव रूप): पूर्ण चेतना की प्राप्ति
अब हम साधना के अंतिम सोपान पर आ पहुंचे हैं – शशि वक्त्र की अवस्था। यह अनुभवकर्ता की विशुद्धतम स्थिति है, जहां तुम शिव के वास्तविक स्वरूप में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित हो जाते हो। अब तुम शिव ही हो चुके हो, और तुम्हारा तृतीय नेत्र तुम्हारे ज्ञान का केंद्र बन गया है।
महा सदाशिव के पच्चीस मुख हैं, जिनकी रचना एक विशिष्ट क्रम में हुई है। सबसे निचली पंक्ति में नौ मुख हैं जो नव ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं – तुम्हारी चेतना अब ज्योतिष के सभी प्रभावों से परे है। उसके ऊपर सात मुख हैं जो सप्त चक्रों से संबंधित हैं – तुम्हारी कुंडलिनी ऊर्जा अब पूर्णतः जागृत हो चुकी है। फिर पांच मुख हैं जो पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) का प्रतीक हैं – तुम अब इन सभी तत्वों के स्वामी हो गए हो। उसके ऊपर तीन मुख हैं जो त्रिकाल (भूत, वर्तमान, भविष्य) का प्रतिनिधित्व करते हैं – तुम्हारी चेतना अब समय की सीमाओं से मुक्त हो गई है। और सबसे ऊपर एक मुख है जो शुद्ध चैतन्य, या अनुभवकर्ता, या द्रष्टा है – यह तुम्हारा निज स्वरूप है।
मैंने जिस चित्र को देखा है, वह महा सदाशिव के इसी स्वरूप को दर्शाता है। यह एक त्रिशूल के आकार में भी प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसके तीन बिंदु सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। तुम इन तीनों गुणों के मध्य में स्थित हो गए हो – न सत्व में, न रज में, न तम में, बल्कि इन सबके साक्षी के रूप में।
इस अवस्था में, तुम्हारी चेतना अपने चरम विकास को प्राप्त कर चुकी है। तुम अब न केवल अपने भीतर, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड में एक ही परम चेतना का अनुभव करते हो। मैं तुम्हें बता दूं, यह अनुभव शब्दों से परे है। यहां अनुभवकर्ता और अनुभव, द्रष्टा और दृश्य, शिव और शक्ति का भेद पूरी तरह मिट जाता है, और तुम परम एकता में स्थापित हो जाते हो।
जब मैं अपने जीवन में इस अवस्था के किसी साधक के संपर्क में आया था, तो मेरा संपूर्ण अस्तित्व एक अलौकिक शांति से भर गया था। उनकी आंखों में झांकना अनंत में झांकने जैसा था। उनके पास न तो कोई प्रश्न था, न कोई उत्तर, न कोई तलाश, न कोई प्राप्ति – वे पूर्णतः तृप्त थे, पूर्णतः शांत थे, पूर्णतः प्रेममय थे।
इस अवस्था को इस प्रकार समझो – जैसे बूंद ने समुद्र में विलीन होकर स्वयं को समुद्र के रूप में पहचान लिया हो, या जैसे दीपक की लौ सूर्य के प्रकाश में समा गई हो। यह वह स्थिति है जहां तुम्हारा “मैं” पूरी तरह से विलीन हो जाता है, और केवल शुद्ध चेतना शेष रहती है। तुम्हारा “मैं” अब विराट “मैं” बन जाता है – अहं ब्रह्मास्मि।
यह परम शांति, परम आनंद और परम ज्ञान की अवस्था है। इस अवस्था में, तुम्हारे पास आने वाले लोग अपने आप ही शांति और आनंद का अनुभव करने लगते हैं, क्योंकि तुम अब परम चेतना के साक्षात प्रतिनिधि बन चुके होते हो।
मैंने ऐसे महापुरुषों को देखा है जो इस अवस्था में थे। वे संसार में रहते हुए भी संसार से परे थे। उनके लिए जीवन और मृत्यु, सुख और दुःख, लाभ और हानि सब एक समान थे। उनका हृदय सभी प्राणियों के लिए करुणा से भरा था, लेकिन वे किसी के प्रति आसक्त नहीं थे। वे संसार में थे, लेकिन संसार उनमें नहीं था।
महा सदाशिव की अवस्था में, तुम समष्टि के हित में अपना जीवन समर्पित कर देते हो। तुम्हारा अस्तित्व अब सिर्फ तुम्हारा नहीं रहता, वह संपूर्ण ब्रह्मांड का हो जाता है। तुम्हारा हर श्वास, हर संकल्प, हर कर्म सृष्टि की भलाई के लिए होता है। तुम उस परम सत्य के साक्षी बन जाते हो, जिसमें सभी द्वैत, सभी विरोधाभास, सभी प्रश्न विलीन हो जाते हैं।
और इसलिए, जब कोई साधक इस अंतिम सोपान पर पहुंच जाता है, तो उसके लिए न कोई साधना शेष रहती है, न कोई लक्ष्य, न कोई मार्ग। वह स्वयं मार्ग बन जाता है, स्वयं लक्ष्य बन जाता है, स्वयं साधना बन जाता है। वह जीवन्मुक्त हो जाता है – जीवित रहते हुए भी मुक्त।
इस प्रकार, एकादश रुद्रों की यह साधना पूर्ण होती है, और साधक अपने चरम लक्ष्य – आत्मज्ञान और आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करता है। वह शिव से एकाकार हो जाता है, और उसके लिए अब कोई भेद नहीं रहता – न अपने और दूसरे में, न आत्मा और परमात्मा में, न साधक और साध्य में। वह केवल है, और यही उसका परम सत्य है।
उपसंहार: एकादश रुद्र साधना का सार
प्रिय साधक, आप इस लेख के माध्यम से एकादश रुद्रों की यात्रा पर चले हैं – अज्ञान के अंधकार से लेकर पूर्ण चेतना के उज्ज्वल प्रकाश तक। यह यात्रा हमारी आंतरिक चेतना के क्रमिक विकास की कहानी है, जो हमें हमारे वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाती है।
जब हम इस यात्रा को समग्रता में देखते हैं, तो एक स्पष्ट प्रगति दिखाई देती है। कालभैरव के द्वार से प्रवेश करके, हम सबसे पहले अपने भीतर के अज्ञान का सामना करते हैं। हम अपने भयों, अपनी सीमाओं, अपने अहंकार से मिलते हैं। फिर धीरे-धीरे, जैसे-जैसे हम आत्म-परीक्षण से गुजरते हैं, हमारी चेतना सूक्ष्म होती जाती है।
मध्य चरणों में, हम आंतरिक संतुलन और रूपांतरण का अनुभव करते हैं। हमारे दोष गुणों में बदलने लगते हैं, हमारी आंतरिक और बाह्य दुनिया के बीच सामंजस्य स्थापित होता है। अंततः, हम द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ते हैं, जहां विपरीत प्रतीत होने वाले तत्व एक होने लगते हैं।
आखिरकार, साधना के अंतिम सोपानों में, हम आत्मज्ञान और पूर्ण चेतना की प्राप्ति करते हैं। हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेते हैं – हम वह हैं जो कभी नहीं बदलता, जो सभी अनुभवों का साक्षी है, जो सभी विपरीतताओं से परे है।
याद रखें, यह मार्ग सीधी रेखा में नहीं चलता। इसमें उतार-चढ़ाव होते हैं, पड़ाव आते हैं, और कभी-कभी हम पीछे भी जाते हैं। कुछ साधक एक अवस्था में वर्षों बिता सकते हैं, जबकि अन्य कई अवस्थाओं से शीघ्रता से गुजर सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की यात्रा अद्वितीय है, और इसे अपनी गति से चलने देना ही बुद्धिमानी है।
इस यात्रा में गुरु का मार्गदर्शन अमूल्य है। वे हमें उन स्थानों पर पहचानने में मदद करते हैं जहां हम फंस जाते हैं, वे हमें भ्रम और माया से बचाते हैं, और वे हमें आत्म-साक्षात्कार के प्रकाश की ओर ले जाते हैं। लेकिन अंततः, यात्रा हमारी अपनी है। शिव हमारे भीतर हैं, और उन्हें खोजना हमारा अपना कार्य है।
एकादश रुद्रों की यह यात्रा केवल एक वैचारिक विश्लेषण नहीं है। यह एक जीवंत अनुभव है, जिसे दैनिक जीवन में जीना है। प्रत्येक क्षण, प्रत्येक श्वास, प्रत्येक विचार इस यात्रा का हिस्सा है। अपने आप को इस यात्रा में डूबने दें, इसे अपनाएं, और देखें कि आप कहां पहुंचते हैं।
मेरी मंगल कामनाएँ आपके साथ हैं।। आपके भीतर का शिव जागृत हो, और आप अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लें। यही इस लेख का उद्देश्य है, यही एकादश रुद्र साधना का सार है।
शिवम् अस्तु।
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दक्षिणामूर्ति साधक की कहानी
हिमालय की तलहटी में बसे एक छोटे से आश्रम में, एक विलक्षण साधक निवास करते थे। वे वर्षों से दक्षिणामूर्ति शिव के ध्यान में लीन थे, और उन्होंने कठोर तपस्या से मन पर संपूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। उनके पास शब्दों का अत्यंत सीमित उपयोग था, फिर भी लोग दूर-दूर से उनके दर्शन के लिए आते थे।
एक शरद ऋतु की संध्या में एक युवक आश्रम पहुंचा। उसके चेहरे पर गहरी निराशा के भाव थे। वह पिछले कई महीनों से जीवन के अर्थ की खोज में भटक रहा था। अपने परिवार से बिछड़ा, नौकरी से निकाला गया, और प्रेम में असफल – उसके जीवन में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा था।
“मैं इस साधक के बारे में सुनकर आया हूं,” उसने आश्रम के एक सेवक से कहा, “क्या वे मुझे जीवन के उद्देश्य के बारे में बता सकते हैं?”
सेवक ने युवक को साधक के ध्यान कक्ष में ले जाया, जहां वे पद्मासन में बैठे थे। युवक ने साधक को प्रणाम किया और उनके सामने निराशा से भरा बैठ गया। उसने अपने दुःख की कहानी सुनाने की कोशिश की, लेकिन शब्द जैसे उसका साथ छोड़ गए थे।
साधक ने बिना कुछ कहे केवल युवक की ओर देखा। उनकी आंखें गहरे समुद्र की तरह शांत थीं, और उनके चेहरे पर एक ऐसी सौम्यता थी जो किसी चट्टान पर पड़ती धूप की तरह गर्म और स्थिर थी।
कुछ क्षण ऐसे ही बीते। कक्ष में पूर्ण मौन था, सिवाय दीप की कंपती लौ और दूर से आती मंदिर की घंटी के स्वर के। युवक, जो अपने प्रश्न पूछने के लिए व्याकुल था, अचानक स्वयं को एक अजीब शांति से घिरा हुआ पाया।
फिर, बिना किसी स्पष्ट कारण के, उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। वे न तो दुःख के आंसू थे, न ही खुशी के – बस एक गहरी मुक्ति के आंसू थे। जैसे कोई बोझ, जिसे वह अनजाने में वर्षों से ढो रहा था, अचानक गायब हो गया हो। धीरे-धीरे, उसके होंठों पर एक शांत मुस्कान फैल गई।
साधक अभी भी मौन थे, लेकिन उनकी आंखों में एक मंद मुस्कान झलक रही थी।
कई माह बाद, जब एक आगंतुक आश्रम में आया, उसने युवक से, जो अब आश्रम का ही एक सेवक बन गया था, पूछा कि उस दिन क्या हुआ था।
“साधक जी ने उस दिन मुझसे एक भी शब्द नहीं कहा,” युवक ने बताया, “फिर भी उनकी उपस्थिति मात्र से मुझे अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल गए। उस क्षण मैंने समझा कि मैं जिस उत्तर की खोज में भटक रहा था, वह सदा से मेरे भीतर ही था। मैं स्वयं को पहचान नहीं पा रहा था, और उनके शांत नेत्रों ने मुझे मेरा सच्चा प्रतिबिंब दिखा दिया।”
इस कहानी से यह सत्य सामने आता है कि कभी-कभी सबसे गहरे ज्ञान का संचार शब्दों से नहीं, बल्कि मौन से होता है। दक्षिणामूर्ति रूप में शिव भी इसी मौन गुरु का प्रतीक हैं, जो बिना वाणी के अपनी उपस्थिति मात्र से ज्ञान प्रदान करते हैं।