जब सब कुछ समाप्त हो जाता है, जब सभी नाम-रूप विलीन हो जाते हैं, जब सारे शब्द मौन हो जाते हैं, तब जो है – वही शिव है। वो जो दिखता नहीं, पकड़ा नहीं जाता, समझा नहीं जाता, फिर भी जिसके बिना कुछ हो ही नहीं सकता।
शिव: वो जो नहीं है
शिव वो नहीं है जो आंखों से दिखे। शिव वो नहीं है जो मन से सोचा जाए। शिव वो नहीं है जो हाथों से पकड़ा जाए। शिव वो नहीं है जो शब्दों में बांधा जाए। फिर भी, यह सारी नहीं-हैं के पीछे जो है, वही तो शिव है।
जैसे आकाश में स्थान है लेकिन आकाश दिखता नहीं, जैसे शून्य में सब कुछ समाया है लेकिन शून्य पकड़ में नहीं आता, वैसे ही शिव में सब कुछ है लेकिन शिव कुछ भी नहीं है। यही तो उनकी महिमा है, यही तो उनका स्वरूप है।
प्रथम गुरु
कोई पूछे कि पहला गुरु कौन है तो क्या कहेंगे? वो जो सबसे पहले ज्ञान देता है, वो जो खुद को खुद ही सिखाता है। सभी गुरु उसी से निकले हैं, सभी ज्ञान उसी से आया है। जब शिष्य तैयार होता है तो गुरु प्रकट होता है, लेकिन जो सबसे पहले यह तैयारी देता है, वो कौन है? वही शिव है।
वो अपने ही अनेक रूपों में अनेक गुरुओं के रूप में आता है। कभी कृष्ण बनकर, कभी बुद्ध बनकर, कभी महावीर बनकर। पर सबके पीछे वही एक है। गुरु-शिष्य का खेल भी वही खेलता है, दोनों बनकर। जब खेल समाप्त होता है तो पता चलता है कि खेलने वाला एक ही था।
सम भाव
शिव में कोई पक्षपात नहीं। न वो देवता को पसंद करता है, न राक्षस से नफरत करता है। उसके लिए सब बराबर हैं, सब एक हैं। सदाशिव का यही स्वरूप है – पूर्ण सम भाव। अच्छा हो या बुरा, सुंदर हो या कुरूप, ज्ञानी हो या अज्ञानी – सबका स्वीकार करता है वो।
यह स्वीकार कोई मजबूरी नहीं है, यह उसका स्वभाव है। जैसे सूर्य सबको प्रकाश देता है बिना भेदभाव के, जैसे हवा सबको जीवन देती है बिना चुनाव के, वैसे ही शिव सबको अस्तित्व देता है बिना शर्त के। वो केवल भाव देखता है, कर्म नहीं। केवल प्रेम देखता है, रूप नहीं।
धवल शक्ति
जब कभी उसे देखने चलो तो शक्ति दिखेगी। एकदम धवल वर्ण की, निर्मल, निष्कलंक। ज्ञान का भी यही रंग है – शुद्ध धवल। जब परम ज्ञान उतरता है तो वो इसी धवल प्रकाश के रूप में आता है। सरस्वती भी इसी धवलता से अपना तेज लेती है।
शिव है ही नहीं इसलिए दिखता नहीं, पर उसकी शक्ति प्रकट होती है। यह शक्ति अनंत संभावना की तरफ चलती है, मतलब शिव की तरफ। जो कुछ भी हो सकता है, जो कुछ भी हो रहा है, जो कुछ भी हो चुका है – सब इसी अनंत संभावना से निकला है।
अनंत संभावना
शिव है अनंत संभावना। न शुरुआत है उसकी, न अंत है। न आया है कहीं से, न जाएगा कहीं। सदा से है, सदा रहेगा। इस अनंत संभावना को भी प्रकट करने के लिए वो ही शक्ति बनता है। इसीलिए उसका प्रकाश सबसे शुद्धतम है, सबसे निर्मल है। पूरा सफेद नहीं, धवल एकदम।
हर संभावना उसमें छुपी है। हर सृष्टि उसकी लीला है। हर विनाश उसका खेल है। फिर भी वो अछूता रहता है, निर्लिप्त रहता है। जैसे आकाश में बादल आते-जाते हैं पर आकाश अछूता रहता है, वैसे ही शिव में सब कुछ आता-जाता है पर वो अपरिवर्तित रहता है।
सत्य का स्वरूप
कभी वो राख लपेटे दिखता है, कभी स्वर्ण आभूषणों से सजा हुआ। पर दोनों रूप दिव्य हैं क्योंकि जो भी रूप हो, मूल में सत्य है। और सत्य हमेशा सुंदर ही होता है। सत्य में कुरूपता हो ही नहीं सकती।
सत्य ही शिव होता है, इनमें कोई अंतर नहीं है। और शिव तो सुंदर है ही। सुंदरता उसका स्वभाव है, गुण नहीं। वो सुंदर है इसलिए नहीं कि कोई उसे सुंदर बनाता है, बल्कि इसलिए कि वो सत्य है। सत्य स्वयं में सुंदरता है।
निष्कर्ष
शिव को ढूंढना नहीं पड़ता, सिर्फ जो वो नहीं है उसे छोड़ना पड़ता है। जब सब छूट जाता है, जब कुछ भी नहीं बचता, तब जो बचता है – वही शिव है। वो हमारा लक्ष्य नहीं है, वो हमारा स्वरूप है। वो हमारी मंजिल नहीं है, वो हमारी यात्रा है। वो हमारा भविष्य नहीं है, वो हमारा वर्तमान है।
बस इतना जानना काफी है कि जो कुछ भी है, वो शिव है। जो कुछ भी नहीं है, वो भी शिव है। और जो इस सबको जानता है, वो भी शिव है।
🕉️ शिव ही सत्य है, शिव ही सुंदर है, शिव ही शिव है।
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