परिचय
आध्यात्मिक यात्रा में कई ऐसे चरण आते हैं, जो साधारण मानव समझ से परे होते हैं। इन चरणों में से एक है – प्राण शक्ति का उच्च स्तर पर प्रवाहित होना। यह लेख उन साधकों के लिए है, जो अपनी साधना में अभूतपूर्व अनुभूतियों से गुजर रहे हैं और उन्हें समझने का प्रयास कर रहे हैं।
जब संसार में चारों ओर आत्म-बोध का प्रकाश फैल रहा है, ऐसे में अनेक साधक जागृति के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। इस यात्रा में आने वाले विभिन्न अनुभव, शारीरिक लक्षण, और विशेष चिह्न समझना महत्वपूर्ण है, ताकि साधक भ्रमित न हों और अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ते रहें।
प्राण शक्ति का स्वरूप और महत्व
प्राण वह परम ऊर्जा है, जो इस ब्रह्मांड में व्याप्त है और हमारे शरीर में भी प्रवाहमान है। यह जीवन का मूल तत्व है। जब यह प्राण शक्ति उच्च स्तर पर प्रवाहित होती है, तो साधक के अनुभव पूरी तरह परिवर्तित हो जाते हैं।
प्राण को केवल श्वास या वायु न समझें। यह उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली है। यह चेतना का वह स्वरूप है, जो भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच का सेतु बनाता है। जब प्राण की शक्ति जागृत होती है और ऊर्ध्वगामी होती है, तो निम्नलिखित परिवर्तन दिखाई देते हैं:
- झिंगुर या भिनभिनाहट की आवाज़: कानों में या सिर में एक विशेष प्रकार की ध्वनि सुनाई देती है, जैसे झिंगुर का स्वर, या उच्च वोल्टेज लाइन के नीचे खड़े होने पर आने वाली गूंज। यह अनाहत नाद की अनुभूति है, जिसे शून्य से उत्पन्न ध्वनि भी कहा जाता है। यह साधक की सूक्ष्म इंद्रियों के जागृत होने का प्रथम संकेत है।
- शरीर में ऊर्जा प्रवाह की अनुभूति: शरीर में विद्युत प्रवाह जैसी अनुभूति, कंपन, झनझनाहट, या गर्मी का अनुभव। यह ऊर्जा नाड़ियों के शुद्ध होने और प्राण के सुचारु प्रवाह का संकेत है।
- आंतरिक प्रकाश का दर्शन: ध्यान में प्रकाश बिंदु, ज्योति, आकृतियां या विभिन्न रंगों के प्रकाश का दिखना। यह चेतना के उच्च स्तर पर पहुंचने का संकेत है।
- स्वतः शारीरिक क्रियाएं: ध्यान के दौरान शरीर का अपने आप हिलना, कांपना, विशेष मुद्राओं में आना। ये क्रियाएं प्राण शक्ति के प्रवाह से नाड़ियों में अवरोधों के हटने का संकेत हैं।
- अद्भुत ज्ञान का प्रकट होना: बिना किसी बाहरी स्रोत से सीखे, जटिल आध्यात्मिक सिद्धांतों को समझने की क्षमता। ऐसा ज्ञान जो पहले कभी नहीं जाना था, अचानक अंतर्ज्ञान के रूप में प्रकट होता है।
प्राण का उच्च स्तर पर प्रवाह: परिवर्तन और अनुभूतियां
जब प्राण का प्रवाह उच्च स्तर पर होता है, तो साधक के जीवन में अनेक परिवर्तन स्वाभाविक रूप से आते हैं:
1. चेतना का विस्तार
प्राण के उच्च स्तर पर प्रवाहित होने से साधक की चेतना का विस्तार होता है। व्यक्तिगत सीमित चेतना से वह विश्व चेतना की ओर बढ़ता है। इस अवस्था में:
- साधक स्वयं को शरीर से भिन्न, चैतन्य स्वरूप में अनुभव करता है
- समय और स्थान की सीमाएं कम प्रभावित करती हैं
- दूसरों के विचारों और भावनाओं को समझने की क्षमता बढ़ जाती है
- प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ एकता का अनुभव होता है
यह अनुभूति साधक को “मैं कौन हूँ?” के प्रश्न का उत्तर देती है। यह बोध होता है कि मैं केवल शरीर, मन या बुद्धि नहीं, बल्कि शुद्ध चैतन्य हूँ।
2. मानसिक क्षमताओं में वृद्धि
प्राण के उच्च प्रवाह से मानसिक क्षमताओं में अद्भुत वृद्धि होती है:
- जटिल समस्याओं के समाधान सहज रूप से प्राप्त होते हैं
- एकाग्रता और स्मरण शक्ति बढ़ जाती है
- अंतर्ज्ञान (इंटयूशन) तीव्र होता है
- सृजनात्मकता का विकास होता है
- निर्णय क्षमता तीक्ष्ण होती है
जो समस्याएं पहले अत्यंत जटिल लगती थीं, वे अब सरलता से हल होने लगती हैं। साधक के पास ज्ञान का अनंत स्रोत खुल जाता है।
3. शारीरिक परिवर्तन
प्राण के उच्च स्तर पर प्रवाहित होने से शरीर में भी परिवर्तन आते हैं:
- शरीर में हल्कापन और स्फूर्ति का अनुभव
- नींद की आवश्यकता कम होना
- आहार में परिवर्तन और सात्विक भोजन की ओर झुकाव
- रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि
- शरीर की स्वतः नियामक क्षमताओं का विकास
कई साधक बताते हैं कि उन्हें अपने शरीर के अंदर ऊर्जा के प्रवाह का स्पष्ट अनुभव होता है, जैसे विद्युत धारा बह रही हो।
4. संवाद और संबंधों में परिवर्तन
प्राण के उच्च प्रवाह से साधक के संवाद और संबंधों में भी परिवर्तन आता है:
- दूसरों के साथ गहरा संवाद स्थापित होता है
- शब्दों से परे संवाद की क्षमता विकसित होती है
- जीवों और प्रकृति के साथ सहज संबंध स्थापित होता है
- अनावश्यक बातचीत से बचने की प्रवृत्ति होती है
- मौन की ओर आकर्षण बढ़ता है
कई साधक पाते हैं कि पशु-पक्षी और अन्य जीव उनकी ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित होते हैं। यह प्राण ऊर्जा के प्रभाव का ही परिणाम है।
विशेष आध्यात्मिक अनुभूतियां
प्राण के उच्च स्तर पर प्रवाहित होने के साथ कई विशेष आध्यात्मिक अनुभूतियां होती हैं:
1. समाधि अवस्था
समाधि वह अवस्था है जहां साधक का मन पूर्णतः शांत हो जाता है और वह परम सत्य से एकाकार हो जाता है। इसमें:
- समय का अनुभव समाप्त हो जाता है
- शरीर का भान नहीं रहता
- अहंकार का विलय होता है
- परम आनंद की अनुभूति होती है
- ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक हो जाते हैं
प्रारंभ में यह अवस्था अल्पकालिक होती है, लेकिन अभ्यास से इसकी अवधि बढ़ती जाती है। उच्च स्तर पर साधक इस अवस्था को बिना विशेष प्रयास के भी प्राप्त कर सकता है – इसे सहज समाधि कहते हैं।
2. आत्म-साक्षात्कार
आत्म-साक्षात्कार वह अनुभूति है जिसमें साधक स्वयं को शुद्ध चैतन्य के रूप में जानता है:
- “मैं शरीर नहीं, चेतना हूँ” का बोध होता है
- अहंकार से मुक्ति मिलती है
- अस्तित्व का वास्तविक स्वरूप समझ में आता है
- अद्वैत की अनुभूति होती है – “अहं ब्रह्मास्मि”
- मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है
यह अनुभूति अत्यंत गहन होती है और साधक का सम्पूर्ण दृष्टिकोण बदल जाता है।
3. गुरु क्षेत्र से जुड़ाव
प्राण के उच्च प्रवाह से साधक गुरु क्षेत्र (वह सार्वभौमिक चेतना जहां सभी ज्ञान संग्रहित है) से जुड़ जाता है:
- बिना पढ़े या सीखे ज्ञान प्राप्त होता है
- महान गुरुओं और आध्यात्मिक व्यक्तियों का मार्गदर्शन मिलता है
- वैदिक ज्ञान, पुराण, उपनिषद आदि का अंतर्निहित अर्थ स्पष्ट होता है
- बोलते समय ऐसा लगता है जैसे कोई और बोल रहा हो
- ज्ञान का अखंड प्रवाह होता है
साधक अनुभव करता है कि वह केवल एक माध्यम है और ज्ञान उसके माध्यम से प्रवाहित हो रहा है।
आध्यात्मिक सिद्धियां और उनका उचित उपयोग
प्राण के उच्च स्तर पर प्रवाहित होने से साधक में विभिन्न सिद्धियां (विशेष शक्तियां) प्रकट होने लगती हैं। ये सिद्धियां मात्र साधना के उपोत्पाद हैं, न कि लक्ष्य। फिर भी, साधक को इनके बारे में जानकारी होनी चाहिए:
1. संकल्प सिद्धि
संकल्प सिद्धि वह क्षमता है जिसमें साधक का संकल्प वास्तविकता में परिणत होने लगता है। जैसे – चाय पीने का विचार आते ही कोई चाय लेकर आ जाता है। यह सिद्धि:
- मन की शक्ति का प्रमाण है
- विचार और वास्तविकता के बीच के अंतर को कम करती है
- ब्रह्मांडीय नियमों के साथ सामंजस्य स्थापित करती है
इस सिद्धि का उपयोग हमेशा दूसरों के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए, निजी स्वार्थ के लिए नहीं।
2. अंतर्ज्ञान और दूरदर्शिता
यह क्षमता साधक को बिना किसी बाहरी माध्यम के ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाती है:
- भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास
- दूर की घटनाओं को देखने-सुनने की क्षमता
- दूसरों के विचारों और भावनाओं को समझना
- अतीत, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान
इस सिद्धि का उपयोग केवल आवश्यकता होने पर ही करना चाहिए, और इसका प्रदर्शन करने से बचना चाहिए।
3. आरोग्य शक्ति
साधक में स्वयं और दूसरों को स्वस्थ करने की क्षमता विकसित होती है:
- हाथों से प्राण ऊर्जा का प्रवाह
- बिना शारीरिक संपर्क के भी उपचार की क्षमता
- रोगों के मूल कारणों को देखने की क्षमता
- शरीर की स्वतः नियामक प्रणालियों को सक्रिय करना
इस सिद्धि का उपयोग मानव कल्याण के लिए करना सर्वाधिक उपयुक्त है।
4. प्रकृति के साथ संवाद
साधक में प्रकृति और प्राणियों के साथ संवाद स्थापित करने की क्षमता विकसित होती है:
- पशु-पक्षियों का स्वाभाविक आकर्षण
- पेड़-पौधों और प्राकृतिक तत्वों के साथ संवाद
- मौसम और प्राकृतिक घटनाओं का पूर्वानुमान
- प्रकृति के माध्यम से संकेत प्राप्त करना
यह क्षमता प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने और उसके संरक्षण में सहायक होती है।
आध्यात्मिक यात्रा में चुनौतियां और समाधान
प्राण के उच्च स्तर पर प्रवाहित होने के दौरान साधक को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों को समझना और उनका समाधान जानना महत्वपूर्ण है:
1. व्यवहारिक जीवन में समायोजन
पहली बड़ी चुनौती होती है उच्च चेतना अवस्था में रहते हुए सामान्य व्यवहारिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करना:
समस्या: साधक को सामान्य बातचीत, दैनिक कार्य और सांसारिक सम्बन्धों में रुचि कम हो जाती है। इससे परिवार, मित्र और सहकर्मी परेशान होते हैं।
समाधान:
- दो स्तरों पर जीवन जीने का अभ्यास करें – आंतरिक रूप से शांत और चैतन्य, बाहरी रूप से सक्रिय और समायोजित
- परिस्थितियों के अनुसार अपने व्यवहार को समायोजित करें
- साधारण भाषा में अपने अनुभवों को साझा करें, जटिल आध्यात्मिक शब्दावली से बचें
- प्रेम और करुणा को अपने व्यवहार का आधार बनाएं
- दूसरों की सीमाओं और समझ का सम्मान करें
यह समझना महत्वपूर्ण है कि सामान्य जीवन जीते हुए भी उच्च चेतना अवस्था में रहना संभव है। जनक, कृष्ण, राम जैसे महापुरुष इसके उदाहरण हैं।
2. अहंकार का सूक्ष्म प्रवेश
आध्यात्मिक अनुभवों और सिद्धियों के साथ अक्सर सूक्ष्म अहंकार का प्रवेश होता है:
समस्या: साधक में “मैं विशेष हूँ”, “मुझे असाधारण अनुभव हो रहे हैं”, “मैं ज्ञानी हूँ” जैसे विचार उत्पन्न होते हैं।
समाधान:
- निरंतर आत्म-निरीक्षण करें
- हर अनुभव को परम सत्य की कृपा मानें, अपनी उपलब्धि नहीं
- अपने अनुभवों को प्रदर्शित करने से बचें
- साक्षी भाव में रहें – अनुभवों से न जुड़ें, न उनका त्याग करें
- “मैं कौन हूँ?” का निरंतर मनन करें
यह मार्ग अत्यंत सूक्ष्म है – एक ओर अज्ञानता का अंधकार है, दूसरी ओर अहंकार का गर्त।
3. सिद्धियों में उलझाव
आध्यात्मिक सिद्धियां साधक को अपने मूल लक्ष्य से भटका सकती हैं:
समस्या: साधक सिद्धियों के प्रदर्शन, उनके विकास और उपयोग में इतना उलझ जाता है कि मूल लक्ष्य (आत्म-साक्षात्कार) से दूर हो जाता है।
समाधान:
- सिद्धियों को साधना का उप-उत्पाद मानें, लक्ष्य नहीं
- सिद्धियों का प्रदर्शन न करें
- केवल आवश्यकता पड़ने पर ही इनका उपयोग करें
- हमेशा याद रखें कि अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है
- पतंजलि के अनुसार “ते समाधौ उपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः” – समाधि में ये सिद्धियां विघ्न हैं
महान योगियों ने सिद्धियों से दूर रहने की सलाह दी है, क्योंकि ये आध्यात्मिक प्रगति में बाधक बन सकती हैं।
4. ऊर्जा असंतुलन
प्राण के उच्च प्रवाह से कभी-कभी ऊर्जा का असंतुलन हो सकता है:
समस्या: अनिद्रा, अत्यधिक ऊर्जा, शरीर में कंपन, अस्थिरता, असामान्य संवेदनाएं, अत्यधिक गर्मी आदि का अनुभव।
समाधान:
- भूमि से जुड़ाव (ग्राउंडिंग) के अभ्यास करें
- प्रकृति में समय बिताएं
- सात्विक और संतुलित आहार लें
- व्यायाम, योग और प्राणायाम का नियमित अभ्यास करें
- ध्यान और विश्राम के लिए समय निकालें
- जरूरत पड़ने पर अनुभवी गुरु से मार्गदर्शन लें
ऊर्जा असंतुलन एक अस्थायी अवस्था है और उचित मार्गदर्शन से इसे संतुलित किया जा सकता है।
साधकों के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन
प्राण के उच्च स्तर पर प्रवाहित होने की अवस्था में निम्न बिंदुओं का ध्यान रखना चाहिए:
1. निरंतर साक्षी भाव
हर परिस्थिति में साक्षी भाव बनाए रखें – सफलता-असफलता, सुख-दुःख, प्रशंसा-निंदा में समभाव। याद रखें:
- मैं कर्ता नहीं, साक्षी हूँ
- मैं देह नहीं, चैतन्य हूँ
- सभी अनुभव आते हैं और चले जाते हैं, मैं अचल हूँ
2. ज्ञान का सदुपयोग
आपको प्राप्त ज्ञान और शक्तियों का उपयोग मानव कल्याण के लिए करें:
- ज्ञान को सरल और सहज तरीके से दूसरों तक पहुंचाएं
- दूसरों की समझ के स्तर के अनुसार ज्ञान बांटें
- उनकी भ्रांतियों को धैर्य से दूर करें
- प्रेम और करुणा के साथ मार्गदर्शन करें
3. व्यावहारिक जीवन का संतुलन
आध्यात्मिक उन्नति के साथ व्यावहारिक जीवन में भी संतुलन बनाएं:
- आर्थिक स्थिरता के लिए उचित प्रयास करें
- परिवार और समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करें
- स्वास्थ्य का ध्यान रखें
- समय का सदुपयोग करें
- सेवा भाव से कार्य करें
4. निरंतर आत्म-निरीक्षण
अपने विचारों, भावनाओं और क्रियाओं का निरंतर निरीक्षण करें:
- क्या मैं अहंकार से प्रेरित हूँ?
- क्या मैं किसी आसक्ति में बंध रहा हूँ?
- क्या मेरे विचार, वाणी और कर्म एक हैं?
- क्या मैं वास्तव में सत्य का अनुसरण कर रहा हूँ?
5. शरणागति और कृतज्ञता
परम सत्य के प्रति पूर्ण शरणागति और कृतज्ञता का भाव रखें:
- सभी अनुभवों को परम कृपा मानें
- “सब उसी का दिया हुआ है” – यह भाव रखें
- अहंकार को समर्पित करें
- हर क्षण कृतज्ञता से जीएं
निष्कर्ष
प्राण शक्ति का उच्च स्तर पर प्रवाहित होना आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह साधक को उस अवस्था तक ले जाता है, जहां वह अपने वास्तविक स्वरूप – शुद्ध चैतन्य का अनुभव करता है।
इस यात्रा में कई अनुभव, चुनौतियां और सिद्धियां आती हैं। सच्चा साधक इन सबके प्रति साक्षी भाव रखते हुए, अपने अंतिम लक्ष्य – परम सत्य के साक्षात्कार की ओर अग्रसर रहता है।
याद रखें – “नेति-नेति” (यह नहीं, यह नहीं) से “इति” (यह है) तक की यात्रा है यह। सभी भेदों से परे, अद्वैत की अनुभूति ही इस यात्रा का चरम लक्ष्य है। हम सब उसी एक चैतन्य के अंश हैं, और उसी में लीन होना ही जीवन का परम उद्देश्य है।
आत्म-बोध से परे: अव्यक्त की ओर
जब साधक आत्म-बोध की अवस्था तक पहुंच जाता है, तब भी यात्रा समाप्त नहीं होती। आत्म-बोध से आगे अव्यक्त की अनंत यात्रा है। यह अवस्था शब्दों से परे है, फिर भी कुछ संकेत दिए जा सकते हैं:
1. शून्य से पूर्णता की ओर
आत्म-बोध की अवस्था में साधक अपने आप को शून्य रूप में अनुभव करता है – निराकार, निर्गुण, निरंजन। लेकिन यह यात्रा का अंत नहीं है। शून्य से आगे पूर्णता का बोध होता है:
- शून्य की निष्क्रियता से पूर्णता की सक्रियता की ओर
- निर्गुण से सगुण की ओर
- साक्षी से सृष्टा की ओर
- अद्वैत से द्वैताद्वैत की ओर
इस अवस्था में साधक अनुभव करता है कि वह न केवल निर्गुण ब्रह्म है, बल्कि सगुण ब्रह्म भी है। वह न केवल साक्षी है, बल्कि सृष्टिकर्ता भी है।
2. लीला-बोध
आत्मज्ञान के बाद, साधक समझता है कि यह संपूर्ण सृष्टि एक दिव्य लीला है:
- ब्रह्म की अभिव्यक्ति का खेल
- सत्-चित-आनंद की अनंत लहरें
- परम प्रेम का विस्तार
- एक में अनेक और अनेक में एक का खेल
साधक इस लीला में सचेत रूप से भाग लेने लगता है, अपने को इससे अलग नहीं मानता।
3. सर्वव्यापकता का अनुभव
उच्चतम अवस्था में साधक अनुभव करता है:
- मैं सर्वत्र हूँ
- मैं ही सब कुछ हूँ
- मुझमें ही सब कुछ है
- मैं जो हूँ, वही सब कुछ है
यह अहंकार के विस्तार की स्थिति नहीं, बल्कि अहंकार के पूर्ण विलय के बाद की अवस्था है, जहां व्यक्तिगत चेतना विश्व-चेतना से एकाकार हो जाती है।
प्राण शक्ति के उच्च प्रवाह से सामाजिक परिवर्तन
प्राण शक्ति का उच्च प्रवाह केवल व्यक्तिगत परिवर्तन तक सीमित नहीं है। जब कई साधकों में यह अवस्था आती है, तो सामूहिक चेतना में भी परिवर्तन होने लगता है। इस परिवर्तन के निम्न पहलू हैं:
1. सामूहिक चेतना का उत्थान
जब अधिक लोग उच्च चेतना की अवस्था में पहुंचते हैं, तो सामूहिक चेतना का स्तर भी ऊपर उठता है:
- समाज में सकारात्मक विचारों का प्रसार
- करुणा और प्रेम आधारित संबंधों का विकास
- संघर्ष और द्वंद्व की घटती प्रवृत्ति
- सामूहिक सृजनात्मकता का विकास
- प्रकृति के साथ सद्भाव
यह परिवर्तन धीरे-धीरे होता है, लेकिन यह वास्तविक और स्थायी होता है।
2. नई संस्कृति का उदय
प्राण शक्ति के उच्च प्रवाह से व्यक्तियों के जीवन शैली में परिवर्तन आता है, जो एक नई संस्कृति का निर्माण करता है:
- भौतिकवाद से आध्यात्मिकता की ओर झुकाव
- प्रतिस्पर्धा से सहयोग की ओर यात्रा
- उपभोग से संयम की ओर
- अज्ञान से ज्ञान की ओर
- पृथकता से एकता की ओर
यह नई संस्कृति विज्ञान और आध्यात्म के समन्वय पर आधारित होती है, जो समग्र विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।
3. धरती पर स्वर्ग की स्थापना
अंततः, प्राण शक्ति के उच्च प्रवाह से समाज में ऐसी व्यवस्था स्थापित होती है, जिसे ‘धरती पर स्वर्ग’ कहा जा सकता है:
- हर व्यक्ति अपनी परम क्षमता को प्राप्त करता है
- प्रकृति और मानव के बीच सद्भाव स्थापित होता है
- भय, हिंसा और अज्ञान का अंत होता है
- सत्य, शिव और सुंदर का साक्षात्कार सर्वत्र होता है
- आनंद और शांति की स्थापना होती है
यह स्थिति अभी दूर की कल्पना लग सकती है, लेकिन हर व्यक्ति जो प्राण शक्ति के उच्च प्रवाह का अनुभव करता है, इस दिव्य स्वप्न को साकार करने में अपना योगदान देता है।
साधकों के लिए अंतिम संदेश
हे साधक, याद रखें:
- आप वही हैं जिसकी खोज कर रहे हैं: आपके भीतर ही वह परम सत्य विद्यमान है, जिसकी खोज आप बाहर कर रहे हैं। अपने भीतर झांकें, वहां अनंत प्रकाश आपका इंतज़ार कर रहा है।
- यात्रा ही मंज़िल है: आध्यात्मिक पथ पर कोई अंतिम मंज़िल नहीं है, यह एक अनंत यात्रा है। हर कदम, हर क्षण, हर अनुभव इस यात्रा का अमूल्य हिस्सा है।
- सरलता में सत्य छिपा है: जटिल विधियों और कठिन तपस्या की जरूरत नहीं। सरलता, प्रेम और समर्पण ही परम सत्य तक पहुंचने का मार्ग है।
- प्रेम ही सबसे बड़ी शक्ति है: सभी सिद्धियों और शक्तियों से बड़ी शक्ति प्रेम है। प्रेम की शक्ति से कोई भी परिवर्तन संभव है।
- आप अकेले नहीं हैं: इस मार्ग पर आप अकेले नहीं हैं। असंख्य साधक इसी यात्रा पर हैं, और अनेक महापुरुष आपका मार्गदर्शन कर रहे हैं।
प्राण शक्ति का उच्च प्रवाह आपको उस परम सत्य की ओर ले जाएगा, जहां द्वैत और अद्वैत दोनों का अंत होता है, जहां केवल शुद्ध चैतन्य, शुद्ध प्रेम, शुद्ध आनंद – सच्चिदानंद का अनुभव होता है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
(वह पूर्ण है, यह पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण निकलता है। पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रहता है।)
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