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शिव को शाश्वत चेतना के प्रतीक के रूप में कैसे समझें?

शिव शाश्वत चेतना

by | May 8, 2025 | Sanatan Soul

प्रस्तावना

जब शिव शब्द का उच्चारण होता है, तो एक विचित्र शांति का अनुभव होता है। क्या आपने कभी महसूस किया है कि शिव महज एक देवता नहीं, बल्कि चेतना की वह अवस्था हैं जिसकी ओर हम सभी की यात्रा है? मूर्तियों और अभिषेक के परे, शिव एक गहन वास्तविकता हैं – शाश्वत चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं।

शिव को समझना मन के परे जाने की बात है। आज इस लेख में, मैं आपके साथ अपने अनुभव और विभिन्न ज्ञानियों के अंतर्दृष्टि को साझा करना चाहता हूँ ताकि हम सब शिव के वास्तविक स्वरूप – उस शाश्वत चेतना को समझ सकें।

शिव: शुद्ध चैतन्य का प्रतीक

शिव क्या हैं? एक द्रष्टा, एक साक्षी, जो केवल ‘है’। वह अवस्था है जहाँ मन समाप्त होता है और केवल शुद्ध चेतना शेष रह जाती है।

ओशो कहते हैं, “ध्यान का अर्थ होता है – भीतर सिर्फ होना मात्र।” यही शिव की अवस्था है। जब हम अपने भीतर सिर्फ ‘होते’ हैं – न विचार, न वासना – तब शिव का आगमन होता है। इसीलिए उन्हें मृत्यु का, विध्वंस का, विनाश का देवता कहा गया है। मन का विनाश ही शिव का प्रादुर्भाव है।

कई वर्षों के शोध और अनुभव से मैंने समझा कि ध्यान ही मन की मृत्यु है। जब मन मरता है, तब हम शिव-स्वरूप हो जाते हैं। ऐसा मत सोचिए कि प्रलय कोई भविष्य की घटना है; जो साधक ध्यान में उतरता है, उसके भीतर तत्काल प्रलय घटित होती है – मन की प्रलय, विचारों की प्रलय। और उस शून्य में एक नई चेतना का जन्म होता है – शुद्ध, निर्मल, अखंड।

शिवलिंग: ध्यान का प्रतीक

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे मंदिरों में शिवलिंग का आकार क्यों अंडाकार होता है? मैंने पाया कि यह आकृति ज्योति के आकार से मिलती-जुलती है।

जब हम ध्यान में गहराई से उतरते हैं, तो हमारे भीतर एक दिया जलता है। इस दिए की ज्योति का आकार ही शिवलिंग जैसा होता है। जैसे-जैसे यह ज्योति बढ़ती जाती है, हमारे चारों ओर एक आभामंडल बन जाता है, जिसकी आकृति भी अंडाकार होती है।

आश्चर्य की बात है कि आज की आधुनिक विज्ञान भी इस सत्य को मानने लगी है। रूस जैसे देशों में वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध किया गया है कि शांत व्यक्ति के चारों ओर ऊर्जा का मंडल अंडाकार हो जाता है, जबकि अशांत व्यक्ति के चारों ओर की ऊर्जा खंडित होती है – टुकड़े-टुकड़े, बिना किसी संतुलन के।

मेरे अपने ध्यान के अनुभवों में, मैंने पाया है कि जब मन शांत होता है, तो एक सुंदर, संतुलित ऊर्जा का अनुभव होता है, जो आंतरिक एकता और पूर्णता का प्रतीक है – ठीक वैसे ही जैसे शिवलिंग।

निर्गुण भक्ति और शिव

निर्गुण भक्ति में हम किसी आकार, रूप या गुण वाले देवता की उपासना नहीं करते, बल्कि उस निराकार, निर्गुण तत्व की अनुभूति करते हैं जो सर्वत्र व्याप्त है। शिव इसी निर्गुण तत्व के प्रतीक हैं।

साधना में अनुभूति हुए कि जब हम शिव को निर्गुण रूप में देखते हैं, तो वे मूर्तियों और मंदिरों में सीमित नहीं रहते, बल्कि हर श्वास, हर क्षण, हर अणु में हमारे साथ होते हैं। वे ही हमारे अंतर्तम में जो ‘देखने वाला’ है, जो ‘जानने वाला’ है, जो ‘अनुभव करने वाला’ है।

माँ शून्य के संग आत्मज्ञान की यात्रा

मेरे आध्यात्मिक सफर में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब मैं कैवल्याश्रम में माँ शून्य के सत्संग में गया। शून्य बोधिसत्व के मार्गदर्शन में माँ शून्य ज्ञान मार्ग की गुरु हैं। उनके माया और आत्मज्ञान के सत्संग में, मुझे एक गहरी अंतर्दृष्टि मिली।

माँ शून्य ने बताया कि आत्मज्ञान का मार्ग “नेति-नेति” (न यह, न यह) से होकर गुजरता है – यह वही दृष्टिकोण है जिसे महर्षि रमण ने अपने शिष्यों को सिखाया था। नेति-नेति का अर्थ है – जो कुछ भी परिवर्तनशील है, जो कुछ भी जन्म लेता और मरता है, जो कुछ भी आता और जाता है, वह हमारा वास्तविक स्वरूप नहीं है।

एक बार सत्संग के दौरान, माँ शून्य ने कहा, “अपने आप से पूछो – मैं क्या हूँ? क्या मैं यह शरीर हूँ? नहीं, क्योंकि शरीर जन्मता और मरता है। क्या मैं मन हूँ? नहीं, क्योंकि मन आता और जाता है। क्या मैं अपने विचार हूँ? नहीं, क्योंकि विचार उठते और मिटते हैं। मैं वह हूँ जो इन सबको देखता है, जो इन सबके परे है – शुद्ध चेतना, शिव स्वरूप।”

यह अनुभव अत्यंत महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसने मुझे शिव के वास्तविक स्वरूप की झलक दिखाई – वह शुद्ध चेतना जो सब कुछ देखती है, पर स्वयं अदृश्य रहती है।

ज्ञान और ध्यान का संगम

ओशो कहते हैं, “ध्यान से ही ज्ञान का जन्म होता है। जो ज्ञान ध्यान के बिना तुम इकट्ठा करते हो, वह ज्ञान नहीं है, ज्ञान का धोखा है – मिथ्या ज्ञान।”

अपने अनुभव से मैंने देखा है कि सच्चा ज्ञान पुस्तकों या शास्त्रों से नहीं, बल्कि गहरे अंतर्मनन और ध्यान से आता है। शिव इसी ज्ञान के आधार हैं – वह ज्ञान जो अनुभव से जन्मता है, जो चेतना की गहराइयों से उभरता है।

निर्गुण भक्ति के मार्ग पर चलते हुए, मैंने महसूस किया है कि यह ज्ञान कोई बाहरी वस्तु नहीं है, जिसे प्राप्त किया जाए। यह हमारे भीतर ही छिपा है, जैसे मिट्टी में दबा हुआ हीरा। ध्यान हमें इस हीरे को उजागर करने में मदद करता है।

साक्षी भाव: शिव का सार

शिव साक्षी भाव के प्रतीक हैं – वह जो सब कुछ देखता है, पर स्वयं अदृश्य रहता है; जो सब कुछ जानता है, पर स्वयं अज्ञेय है; जो सब कुछ अनुभव करता है, पर स्वयं अनुभव से परे है।

देखा गया है कि जब हम इस साक्षी भाव को अपनाते हैं, तो जीवन की अनेक समस्याएं स्वतः हल होने लगती हैं। क्रोध, भय, चिंता – ये सब भावनाएं तब रह जाती हैं जब हम इनके साक्षी बन जाते हैं, इनमें तादात्म्य नहीं करते।

गोरखनाथ जी कहते हैं, “मारो जोगी मारो, मारो मारन है मीठा।” यह मृत्यु अहंकार की मृत्यु है, मन की मृत्यु है। और इस मृत्यु से ही अमृत का जन्म होता है – वह अमृत जो शिव का स्वरूप है, जो शाश्वत चेतना है।

साक्षी भाव स्थिर होने का एक सरल तरीका है – अपने विचारों, भावनाओं और अनुभवों को देखना, बिना किसी निर्णय के, बिना किसी प्रतिक्रिया के। जैसे कोई नदी के किनारे बैठकर पानी का बहाव देखता है, वैसे ही अपने अंतर्जगत को देखना। यही साक्षी है, यही शिव है।

दैनिक जीवन में शिव चेतना

ऐसा नहीं है कि शिव चेतना केवल ध्यान में या आध्यात्मिक अभ्यास में ही अनुभव की जा सकती है। हमारे दैनिक जीवन में भी इसके अनुभव के अनेक क्षण होते हैं।

जब हम किसी कार्य में पूरी तरह से डूब जाते हैं – चाहे वह लेखन हो, चित्रकला हो, या सामान्य गृह कार्य – तब हम क्षण भर के लिए अपने ‘मैं’ (अहंकार) को भूल जाते हैं और शुद्ध क्रिया में तल्लीन हो जाते हैं। यही शिव अवस्था है।

व्यक्तिगत अनुभव

इसी प्रकार, जब हम प्रकृति की सुंदरता में खो जाते हैं, या किसी गहरे प्रेम के क्षण में, या गहरी शांति के अनुभव में – ये सभी शिव चेतना के झलक हैं।

मृत्यु और पुनर्जन्म का प्रतीक

शिव मृत्यु और पुनर्जन्म के देवता हैं। यह केवल शारीरिक मृत्यु और जन्म की बात नहीं है, बल्कि आंतरिक मृत्यु और पुनर्जन्म की बात है – पुराने ‘स्व’ की मृत्यु और नए ‘स्व’ का जन्म।

हर बार जब हम अपने अहंकार को त्यागते हैं, हर बार जब हम अपनी पुरानी धारणाओं को छोड़ते हैं, हर बार जब हम अपने भय और आसक्तियों से मुक्त होते हैं – हम शिव के मृत्यु और पुनर्जन्म के नृत्य में भाग लेते हैं।

निष्कर्ष: शिव चेतना का अनुभव

अंत में, कहना चाहता हूँ कि शिव को समझना कोई बौद्धिक व्यायाम नहीं है, बल्कि एक अनुभव है। यह अनुभव हमारे भीतर के शून्य से आता है, उस शून्य से जिसमें हम अपने विचारों, भावनाओं और धारणाओं से मुक्त हो जाते हैं।

निर्गुण भक्ति का मार्ग हमें इसी अनुभव की ओर ले जाता है – शिव चेतना के अनुभव की ओर। हमें जो वास्तव में चाहिए – शांति, आनंद, पूर्णता – वह बाहर नहीं, हमारे भीतर है, हमारी शिव चेतना में है।

अपनी यात्रा में, मैंने पाया है कि शिव चेतना का अनुभव किसी विशेष स्थान या समय तक सीमित नहीं है। यह हर क्षण संभव है, हर श्वास के साथ संभव है – जब हम साक्षी होते हैं, जब हम मौन में डूबते हैं, जब हम ‘होने’ मात्र का आनंद लेते हैं।

ध्यान रखें, यह यात्रा सरल नहीं है। मन बार-बार भटकाएगा, अहंकार बार-बार अपनी उपस्थिति जताएगा। लेकिन धीरज रखें। जैसे-जैसे आप साक्षी भाव में गहरे उतरेंगे, आप पाएंगे कि मन की चंचलता कम होती जाती है, अहंकार की पकड़ ढीली होती जाती है, और शिव चेतना का अनुभव अधिक स्पष्ट और निरंतर होता जाता है।

शिव चेतना का अनुभव वास्तव में मृत्यु जैसा है – मन की मृत्यु, अहंकार की मृत्यु। और इस मृत्यु के बाद जो जन्म होता है, वह अमृत का जन्म है – शाश्वत आनंद का, परम शांति का, असीम प्रेम का।

यदि आप शिव और चेतना के विषय में अधिक गहराई से जानना चाहते हैं, तो यह लेख शिव कौन हैं? चेतना की यात्रा का मानचित्र अवश्य पढ़ें, जिसमें शिव चेतना के ग्यारह सोपानों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

ॐ नम: शिवाय।


संदर्भ: ओशो प्रवचन “शिव ही ज्ञानी है, ध्यान ही शिवलिंग है”

संदर्भ: आचार्य प्रशांत जी का “आज के समय में भक्ति उचित है, या ज्ञान” व्याख्यान (https://www.youtube.com/watch?v=Wu3tDCgrYe4)

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Ajay Shukla

Throughout my life, I've worked across multiple industries, and truthfully, defining myself in one line has never been easy. However, a few roles resonate deeply with me: digital marketing strategist, former journalist (Dainik Jagran) and journalism teacher, and a lifelong student of existence. Each experience has shaped who I am, merging practical insight with a quest for deeper understanding.

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