English translation link of the article: Journey to Self-Realization: My Experience at Shoonya Bodhisatva
आत्मज्ञान की यात्रा: शून्य बोधिसत्व में मेरा अनुभव
आध्यात्मिक यात्रा हर व्यक्ति के लिए अलग होती है – कोई भक्ति मार्ग से चलता है, कोई कर्म मार्ग से, और कोई ज्ञान मार्ग से। मेरी यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया जब मैं शून्य बोधिसत्व के त्रिज्ञान कार्यक्रम में शामिल हुआ। इस ब्लॉग में मैं आपके साथ अपने अनुभव और प्राप्त ज्ञान को साझा करना चाहता हूँ।
शून्य बोधिसत्व का परिचय
शून्य बोधिसत्व तत्व फाउंडेशन के अंतर्गत कार्यरत एक आध्यात्मिक केंद्र है, जो विभिन्न मार्गों जैसे तंत्र बोधि, भक्ति मार्ग और ज्ञान मार्ग का समावेश करता है। इसका मुख्य उद्देश्य साधकों को उनकी प्राकृतिक प्रवृत्ति के अनुसार विकसित होने में सहायता करना है। कैवल्य आश्रम (तत्व फाउंडेशन का 1 भाग) में साधकों के लिए निःशुल्क रहने की व्यवस्था और निःशुल्क ज्ञान की उपलब्धता है, जिससे हर इच्छुक साधक अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर बिना किसी आर्थिक बाधा के अग्रसर हो सकता है।
त्रिज्ञान कार्यक्रम: तीन दिन की गहन यात्रा
त्रिज्ञान कार्यक्रम में मेरे तीन दिन अत्यंत गहन अनुभव रहे। यहां माँ शून्य ने आत्मज्ञान के विविध आयामों का मार्गदर्शन किया। कार्यक्रम के अंत में, उन्होंने मेरी आध्यात्मिक स्थिति का मूल्यांकन करते हुए मुझे अपना शिष्य स्वीकार किया। उनका मार्गदर्शन आत्म-साक्षात्कार की यात्रा में अत्यंत मूल्यवान सिद्ध हुआ।
एक छोटी सी पृष्ठभूमि
मेरा माँ शून्य से परिचय एक टेलीग्राम चैट ग्रुप के माध्यम से हुआ। वहाँ ग्रहणशीलता या ‘राइट लिस्टनिंग’ के विषय पर बातचीत हुई, जिसमें उन्होंने प्रयासों को सीमित करने का सुझाव दिया। इसके पश्चात मैंने अपनी पूरी ऊर्जा केवल ज्ञान मार्ग तक ही सीमित कर दी। बाकी सभी मार्गों को यथासंभव उपेक्षा कर दी।
मैंने पूरी ईमानदारी से स्वयं को खाली करके माँ शून्य के समक्ष बैठने का प्रयासरहित प्रयास किया, ताकि ज्ञान ग्रहण हो सके। यही सुझाव अमित जी (गुरु) ने भी मुझे दिया था।
‘नेति-नेति’ के मार्ग पर चलना पहले से ही प्रारंभ हो चुका था। अब जब ये शब्द लिखे जा रहे हैं, तो अनुभव होता है कि गुरुजनों का सिखाया ज्ञान श्रुतियों के माध्यम से अपने आप ही उतर रहा है और गलत दिशा स्वतः सही हो जाती है। वेदों को श्रुतियां संभवतः इसीलिए कहा गया है – वे सुने गए।
गुरु साक्षात् परमात्मा स्वरूप हैं, जिनकी करुणा और दिव्य ज्ञान के बिना आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होना संभव ही नहीं। उनके चरणों में सदैव मेरा विनम्र प्रणाम। मैं अपने सभी गुरुओं के प्रति अत्यंत कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर मेरा मार्गदर्शन किया है।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य जिसे मैं श्रद्धापूर्वक साझा करना चाहता हूँ, वह यह है कि आपकी आध्यात्मिक यात्रा में एक से अधिक गुरुओं का परम कृपापूर्ण योगदान होता है। गुरु से संबंधित अपने विचार मैंने एक अन्य लेख “गुरु कौन है? आध्यात्मिक यात्रा में सच्चे मार्गदर्शक की पहचान“ में प्रस्तुत किए हैं।
इस यात्रा में अमित जी ने विशेष भूमिका निभाई। उनके मार्गदर्शन में सहज समाधि, अचाह पद, अवधूत, शिव, राम, कृष्ण, प्रकृति और स्वयं उनकी अनुभूति हुई। अन्य गुरुओं का भी इस यात्रा में महत्वपूर्ण योगदान रहा, जिसका विवरण भविष्य के लेखों में दिया जाएगा।
एक और बात जरूर साझा करना चाहूंगा, शून्य बोधिसत्व से जुड़ना, आपके सवालों के जवाब आपके पास होने के लिए गुरु को सहज उपलब्ध होना चाहिए। और माँ शून्य हमेशा बहुत आसानी से उपलब्ध थीं। ज्ञान मार्ग एक सर्वोत्तम मार्ग है क्योंकि यहां पर क्रमबद्ध तरीके से, बहुत सामान्य उदाहरणों का प्रयोग करके काफी गहन बातें बहुत आसानी से समझा दी जाती हैं।
अस्तित्व का बोध: पहला सबक
त्रिज्ञान कार्यक्रम का पहला महत्वपूर्ण पाठ था अस्तित्व का बोध। अस्तित्व संस्कृत के “अस्ति” शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है “है” या होना।
अस्तित्व को समझना वैसा ही है जैसे समुद्र की विशालता को समझना। हम समुद्र के किनारे खड़े होकर उसकी लहरों को देख सकते हैं, उसके पानी को छू सकते हैं, लेकिन पूरे समुद्र को एक साथ अनुभव नहीं कर सकते। ठीक इसी प्रकार, अस्तित्व सब कुछ है – हर अनुभव, हर वस्तु, हर विचार इसका हिस्सा है। इसे परिभाषित करना कठिन है क्योंकि सब कुछ इसके अंदर है।
माँ शून्य ने समझाया कि अस्तित्व को विभिन्न शब्दों से व्याक्त किया जा सकता है:
- निर्गुण – इसमें कोई गुण नहीं, या सभी गुण इसमें हैं
- निराकार – इसका कोई आकार नहीं, या सभी आकार इसके हैं
- कालातीत – यह समय से परे है
- सर्वव्यापक – यह हर जगह है
मेरे लिए सबसे चुनौतीपूर्ण था समय की सीमा से बाहर निकलना। हम इतने आदी हो गए हैं समय में जीने के, कि समय से परे की अवधारणा कल्पना से भी परे लगती है। माँ शून्य ने एक सरल लेकिन गहन सूत्र दिया – “समय केवल परिवर्तन को मापने की एक इकाई है, जैसे किलोग्राम, लीटर या मिलीलीटर।”
जैसे किलोग्राम वजन को मापता है, लीटर आयतन को मापता है, वैसे ही समय परिवर्तन को मापता है। यह समझ आते ही, मैंने अनुभव किया कि समय के अभाव में भी मेरा अस्तित्व है। यह ऐसा था जैसे कोई जेल से बाहर निकल आया हो – समय की बंदिश से मुक्ति।
अनुभवकर्ता और अनुभव: द्वैत का आरंभ
त्रिज्ञान कार्यक्रम का दूसरा महत्वपूर्ण पाठ था अनुभवकर्ता और अनुभव के बीच के संबंध को समझना। अस्तित्व वहां है जहां से द्वैत शुरू होता है – अनुभवकर्ता और अनुभव के बीच का द्वैत।
अनुभवकर्ता को विभिन्न नामों से जाना जाता है – दृष्टा, साक्षी, चैतन्य, आत्मन। यह अस्तित्व का अप्रकट भाग है, जिसके माध्यम से अस्तित्व स्वयं का अनुभव करता है।
अनुभवकर्ता और अनुभव के संबंध को एक सिनेमा हॉल के माध्यम से समझा जा सकता है। इस उपमा में अनुभवकर्ता वह पर्दा है जिस पर फिल्म प्रदर्शित होती है, स्वयं अनुभव फिल्म के समान है, और मन दर्शक की भूमिका में है।
जब मन अपरिपक्व होता है, तब वह अनुभवों को परम सत्य मान लेता है। ऐसी स्थिति में वह फिल्म के पात्रों से इतना तादात्म्य स्थापित कर लेता है कि उनके दुःख में दुःखी और सुख में सुखी होने लगता है। परंतु वास्तविकता यह है कि अनुभव (फिल्म) अस्थायी हैं – एक अनुभव समाप्त होते ही दूसरा आरंभ हो जाता है, जैसे एक फिल्म के बाद दूसरी फिल्म दिखाई जाती है। इस परिवर्तन के बावजूद पर्दा (अनुभवकर्ता) अपरिवर्तित रहता है।
जब मन का शुद्धिकरण होता है, तब उसे आत्मा के रूप में जाना जाता है। इसे ऐसे समझें – अशुद्ध मन दर्शक है जो सिनेमा हॉल में बैठकर फिल्म देखता है और उसमें खो जाता है। परंतु जब यही मन शुद्ध हो जाता है, तो वह अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचान लेता है – वह दर्शक नहीं, बल्कि वह पर्दा है जिस पर सभी अनुभव प्रदर्शित होते हैं। इस आत्म-बोध की अवस्था को ही आत्मज्ञान कहते हैं – जब साधक प्रकट अनुभवों से परे अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है।
माँ शून्य ने समझाया कि अनुभवकर्ता भी अज्ञेय है – इसका ज्ञान नहीं किया जा सकता, सिर्फ इसे हुआ जा सकता है। अनुभवकर्ता निर्गुण और स्व-प्रमाणित है, अर्थात यह स्वयं सिद्ध है।
सहज समाधि का अनुभव
आत्मज्ञान के पहले दिन के सत्र के अंत में, माँ शून्य ने “सहज समाधि” शब्द का उल्लेख किया। उस क्षण, मैं सहज समाधि में प्रवेश कर गया और अद्भुत रूप से, मैं स्वयं को समाधि में जाते हुए देख रहा था। पूरी प्रक्रिया के दौरान मैं पूर्णतः सचेत था।
यह अनुभव ऐसा था जैसे आप एक नदी में तैर रहे हों और साथ ही ऊपर से स्वयं को देख रहे हों। यह द्वैत के पार जाने की स्थिति थी – जहां द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं, फिर भी अलग रहते हैं।
सहज समाधि में, अनुभवकर्ता और अनुभव के बीच का पर्दा हट जाता है। यह उस स्थिति जैसा है जब आप सपने में होते हुए भी जानते हैं कि यह सपना है – एक प्रकार की लूसिड ड्रीमिंग (सचेत स्वप्न, जिसमें व्यक्ति सपने में होते हुए भी उसे नियंत्रित कर सकता है), लेकिन जागृत अवस्था में।
गुरुक्षेत्र की ऊर्जा
शून्य बोधिसत्व का गुरुक्षेत्र, जहां ध्यान और सत्संग आयोजित होते हैं, एक विशिष्ट ऊर्जा से परिपूर्ण है। वहां गहन शांति और सुरक्षा का अनुभव होता है, जो आंतरिक बल प्रदान करता है।
यह अनुभव ऐसा था जैसे एक उद्यान में प्रवेश करना, जहां हर पौधा, हर फूल, हर पत्ती ऊर्जा से दमक रही हो। भय, जो अधिकांश साधकों की एक प्रमुख बाधा होती है, वहां स्वतः ही विलीन हो जाता है।
गुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर विभिन्न महान गुरुओं की ऊर्जा का समावेश अनुभव होता है, जहां साधक का हंस रूपी परिवर्तन होता है। हंस आत्मा का प्रतीक है – परंपरा में कहा जाता है कि हंस कीचड़ में से मोती चुनने की क्षमता रखता है। यह प्रतीकात्मक कथन विवेक के जागरण का द्योतक है। जिस साधक का विवेक जागृत हो जाता है, वह मिथ्या और सत्य के बीच भेद करके केवल सत्य को ग्रहण करता है।
आज के समय में ज्ञान के नाम पर अनेक विचारधाराएं प्रचलित हैं, लेकिन वास्तविक महत्व इस बात का है कि साधक में सारभूत ज्ञान को पहचानने की दृष्टि विकसित हो। यही हंस का गुण है – विविध विचारों के समुद्र में से सार-तत्व को ग्रहण करने की क्षमता। इस प्रकार, गुरुक्षेत्र हमें न केवल ज्ञान प्रदान करता है, बल्कि हमारे भीतर के विवेक को जागृत करके हंस की भांति सत्य को ग्रहण करने की प्रज्ञा प्रदान करता है।
अनुभव का त्रिविध वर्गीकरण
त्रिज्ञान कार्यक्रम में मैंने सीखा कि अनुभवों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
- जगत का अनुभव: भौतिक पंच इंद्रियों द्वारा प्राप्त होता है। जैसे सड़क पर चलते हुए आस-पास की दुनिया को देखना, सुनना, महसूस करना।
- शरीर का अनुभव: भौतिक पंच इंद्रियों और आंतरिक इंद्रियों द्वारा प्राप्त होता है। जैसे भूख, प्यास, थकान, दर्द महसूस करना।
- चित्त (मन) का अनुभव: मानसिक इंद्रियों द्वारा प्राप्त होता है। जैसे विचार, भावनाएं, कल्पनाएं, सपने।
हालांकि, वास्तव में सभी अनुभव एक ही प्रकार के हैं – मानसिक अनुभव। जैसे सपने में हम पांचों इंद्रियों से अनुभव करते हैं, लेकिन वह सब मन में ही होता है, वैसे ही जागृत अवस्था में भी सारे अनुभव अंततः मानसिक ही हैं।
नेति-नेति विधि: अनुभवकर्ता होने का मार्ग
अनुभवकर्ता होने के लिए, माँ शून्य ने ‘नेति-नेति’ (न यह, न यह) विधि का उपयोग सिखाया। इस विधि में, हम हर अनुभव को देखते हैं और कहते हैं “मैं यह नहीं हूँ”।
यह ऐसा है जैसे एक प्याज़ के छिलके उतारना। हम हर परत को हटाते जाते हैं – “मैं मेरा शरीर नहीं हूँ”, “मैं मेरे विचार नहीं हूँ”, “मैं मेरी भावनाएँ नहीं हूँ”। जब सभी परतें हट जाती हैं, तो जो बचता है वह है अनुभवकर्ता – शुद्ध चेतना।
नेति-नेति विधि से अनुभवकर्ता के ऊपर माया का पर्दा हट जाता है, अज्ञान का नाश होता है, और ज्ञान प्रकट होता है। यह ऐसा है जैसे बादलों के हटने के बाद सूर्य का प्रकाश, जो हमेशा वहां था, लेकिन बादलों के कारण दिखाई नहीं दे रहा था।
सत्य का मापदंड: परिवर्तनशीलता
अद्वैत दर्शन में सत्य का एक महत्वपूर्ण मापदंड है: “जो परिवर्तनीय है, वह माया या मिथ्या है”। इस मापदंड के आधार पर, सभी अनुभव – चाहे वे बाहरी दुनिया के हों, शरीर के हों, या मन के – मिथ्या हैं, क्योंकि वे सभी परिवर्तनशील हैं।
यह समझना ऐसा है जैसे सपने में जागना। सपने में सब कुछ वास्तविक लगता है, लेकिन जागने पर हम जानते हैं कि वह सब मिथ्या था। इसी प्रकार, जब हम आत्मज्ञान में जागते हैं, तो हम समझते हैं कि सारे अनुभव मिथ्या हैं।
हालांकि, यह मिथ्या होने का अर्थ यह नहीं है कि अनुभवों का कोई मूल्य नहीं है। जैसे फिल्म मिथ्या होने पर भी हमें प्रभावित कर सकती है, वैसे ही जीवन के अनुभव भी मिथ्या होने पर भी महत्वपूर्ण हैं।
आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान का अंतर
ब्रह्मज्ञान को एक उदाहरण से समझते हैं। कुछ भी न होना या अनुभवकर्ता कोई भौतिक चीज़ तो नहीं है। यह अनुभव या उपस्थिति है। यह सिक्के का एक पहलू है। लेकिन इसका एक और पहलू भी है – संसार। अपने वास्तविक स्वरूप को जानते हुए संसार में रहना ब्रह्मज्ञान है।
इस अवस्था की सर्वोत्तम व्याख्या अर्धनारीश्वर के रूपक से समझी जा सकती है। अर्धनारीश्वर में शिव और शक्ति का संतुलित समन्वय है – शिव, जो प्रथम दृष्टि में ‘शून्य’ या ‘कुछ भी नहीं’ प्रतीत होते हैं, वास्तव में अनंत संभावनाओं का आधार हैं। शक्ति वह सक्रिय तत्व है जो इन अनंत संभावनाओं को मूर्त रूप देती है।
इसी प्रकार, अनुभवकर्ता की उपस्थिति में अनुभव-क्रिया निरंतर चलती रहती है। यह सम-अवस्था – अनुभवकर्ता और अनुभव के मध्य स्थिति – ही वास्तविक साम्यावस्था है। दार्शनिक दृष्टि से, शिव अनुभवकर्ता के रूप में निष्क्रिय चैतन्य हैं, जबकि शक्ति अनुभव के रूप में सक्रिय चैतन्य हैं। परम चेतना का अनुभव इन दोनों के सामंजस्यपूर्ण मिलन में ही संभव है – ठीक वैसे ही जैसे अर्धनारीश्वर में शिव और शक्ति एक ही सत्ता के दो पहलू हैं।
आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान के बीच का अंतर ऐसा है जैसे बूंद का समुद्र से अपनी अलग पहचान रखना, और फिर समुद्र में विलीन होकर स्वयं समुद्र हो जाना। आत्मज्ञान में, हम जानते हैं कि हम बूंद नहीं, बल्कि समुद्र का अंश हैं। ब्रह्मज्ञान में, हम स्वयं समुद्र हो जाते हैं।
निष्कर्ष: एक निरंतर यात्रा
शून्य बोधिसत्व में मेरा अनुभव एक ऐसी यात्रा का हिस्सा है जो निरंतर जारी है। आत्मज्ञान से ब्रह्मज्ञान तक का यह सफर अद्वैत के मूल तत्व की ओर ले जाता है – वह तत्व जिसमें द्वैत मिट जाता है और केवल एकता रह जाती है।
इस यात्रा में माँ शून्य का मार्गदर्शन अमूल्य है। उनके ज्ञान और दृष्टिकोण ने मुझे अपने सच्चे स्वरूप को पहचानने में मदद की है। यह ज्ञान सभी के लिए उपलब्ध है, और मेरा मानना है कि हर व्यक्ति अपने मार्ग पर चलकर इसे प्राप्त कर सकता है।
जैसे सूरज हर दिन नए सिरे से उगता है, वैसे ही ज्ञान का प्रकाश भी हर क्षण नया होता है। यह यात्रा कभी समाप्त नहीं होती, बल्कि हर कदम नई अंतर्दृष्टि और गहराई लाता है।
यह ब्लॉग मेरे व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है। आध्यात्मिक यात्रा हर व्यक्ति के लिए अनूठी होती है, और मेरा अनुभव केवल एक संदर्भ बिंदु के रूप में लिया जा सकता है।
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